Wednesday, June 9, 2010

अदृश्य दीवारें...

उसने मेरी एक छवि बनायीं थी...एक इमेज को बसाया था अपने जेहन में..मेरा व्यवहार शायद ठीक उसके विपरीत रहा था..मैं उसकी कसौटी पर सोना नहीं पीतल सा लगने लगा था(शायद वह ना माने) और मैं था....मायावी छलिया जिसे आम नज़रें झूठा, धोखेबाज़, दम्भी, पाखंडी, आवारा और ना जाने क्या क्या समझ सकती थी ...वोह खुद भी.....खता उसकी नहीं थी ...वह भी तो ऐसे ही माहौल में सांस लेती थी..बहुत मुश्किल होता है..खुद को अपनी 'conditioning' से आज़ाद करना..
उसके मन का नहीं होता तो वह अस्तव्यस्त हो जाती थी...ना जाने उसके सोच एक अप्रत्याशित आयाम की जानिब बढ़ जाते थे॥और हालात के ऊपर उसके तब्सिरे उसकी सोचों के 'diametrically opposite' नज़र आने लगते थे..उलझ स़ी जाती थी खुद में वो ..केंद्र से हट कर परिधि का भ्रमण करने लगती थी..ऐसे ही किसी दौर में उसने यह लिखा था...

उपालंभ सा उसका ...

# # #
खींचे जा रही हूँ
कुछ
अनगढ़ सी
लकीरे
कागजों पर..
अर्थहीन
तो नहीं पर
शब्दों में
नहीं बदल
पा रहे हैं भाव
कलम भी
जैसे
अवरुद्ध सी
हो गयी है..
उमड़ रहे हैं
प्रश्न अबूझे ..
खोजने को
जिनका उत्तर
टकरा जाता है
मन
अँधेरी गलियों की
उन
अदृश्य दीवारों से
जो लगता है
खड़ी कर रखी हैं
अपने
चारों तरफ
तुमने ...

इतने उपद्रव और नन्ही सी जान

# # #
मैं पढ़ कर मंद मंद मुस्कुरा रहा था, हाँ एक दुःख सा भी महसूस कर रहा था.....क्योंकि बस नज़रिए का ही फर्क था...मैने उसको और उसने मुझको॥एक सार तत्व के रूप में महसूस किया था..मैने भरसक कोशिश की थी दुनियावी परिचय के दौर से हम बचे रहें..क्योंकि बहुत से 'पेन्डोरा बॉक्स' खुल कर उलझा सकते थे उस पावन प्रवाह को..शायद यह अबोला अनाम रिश्ता बेमौत मर सकता था बेज़रूरत वाकयों की घुटन से..

बाप रे !

# # #
जिन दीवारों को
तुम देख पा रही हो
वह हो सकती है
अदृश्य कैसे ?
जरा छूकर देखो
कहीं तेरी नज़रों का
धोखा तो नहीं..

अगर हकीक़त है
ये दीवारें
तो
क्यों होती
मुलाक़ात तुम से...?

जब तक
अपनी
चुनी हुई
दीवारों को
देख कर,
जाने अनजाने
खुद को
रोकती रहोगी तो
पहुँचोगी कैसे
वहां
जहां
मेरा
सार तत्व
अवस्थित है..

इन
दीवारों के
उस तरफ
शायद
तुम्हे नज़र
आ रहा हो
और
कुछ भी
जो वैसा ही तो है
जैसा होता है
कुछ नया दिखे तो
बताना मुझे
ज़रूर,
शायद
खुद का
यह परिचय
मुझे भी
मालूम ना हो....

मत भटकाओ
खुद को
अँधेरी गालियों में
जो अँधेरी ही
नहीं
'डेड एंड' वाली भी है,
और
जहां जाया
जा सकता है
लौटना
हो सकता है
मुश्किल..
और
उस पार जाना
नामुमकिन...

शब्द
भाव
अनगढ़ लकीरें
अबूझे सवाल
टकराते जवाब
अवरुद्ध कलम
अँधेरी गलियाँ
अदृश्य दीवारें
बाप रे !
इतने उपद्रव
और एक नन्ही जान !
तौबा ! तौबा !


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