Sunday, June 20, 2010

यादों की सीलन....(दीवानी सीरीज)

एक दिन किसी पत्रिका में उसकी यह कविता पढ़ी थी:

बात दीवानी की

# # #
याद नहीं
मुझे
कब ज्वार
आया था
समुद्र में,
कब पांव के
नीचे से
जमीन
सरक गयी थी
कब सूरज ने
अँधेरे पर
दस्तक दी थी
कब बाँहों में
ले लिया था
रात ने,
किस रास्ते से
निकली
और
कहाँ रुकी,
कुछ याद नहीं.

आज यादों की
सीलन को
धूप लगाऊं
एक एक
लम्हा
उगलने
लगेगा।

बात विनेश की

मेरे दिल, दिमाग और पेन ने भी यह कविता लिख दी थी , उसी पत्रिका के संपादक ने नजाकत को समझते हुए छाप भी दी थी, शायद उसने भी पढ़ी होगी.
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# # #
क्यों भूलती हो
जब जब
ज्वार आया था
समंदर में
मेरे साथ खड़ी
अडिग थी
तू जमीं पर.
सुबह का
सूरज सदा
मुस्कुराता था
जब चहकते थे हम
भोर के परिंदों की तरहा,
रात भी हमेशा
साथ थी हमारे
जब जब बहके थे हम.
तू सह ना सकी थी
समय की
करवट को
और
भाग चली थी
उन अनजान
राहों पर
जहाँ मैं नहीं था.

आ लौट आ,
मेरी जान
यादों की यह सीलन
महज़
मेरे
और
तेरे
आंसुओं के
अवशेष है
प्रेम की ऊष्मा
फूँक देगी
प्राण इन में...
और
हर लम्हा
चहकने लगेगा
महकने लगेगा
दहकने लगेगा.

मुझे है
तेरी प्रतीक्षा
आज भी
अब भी.....


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