उसने लिखा था:
तुम कहते हो
भूल जाने को,
भूल तो
जाउंगी
तुझे
पर
बसे हो
तुम
रौम रौम में
मेरे
दे रहे हो
बाधा
मेरे
एकाकीपन
और
स्वतंत्र
होने के
क्रम में....
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मेरा ख़त कुछ यूँ था :
मैं मजबूर हूँ
कहने को कि
भूल जाओ
मुझ को,
रौम रौम में
बस कर
और
बसा कर
कहे
जा रही हो
बातें
एकाकी
स्वतंत्रता की
एकाकीपन या
एकाकी अस्तित्व की,
जब
दो नहीं
एक हैं
हम-तुम,
यह कैसा है
दूसरा
एकाकीपन
क्यों
चाहत है
दूसरी
स्वतंत्रता की ????????
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