Sunday, June 6, 2010

जंगली फूल (दीवानी सीरीज)

ऑरकुट कि एक कम्युनिटी पर यह रचना पोस्ट हुई, नाम शायद कुछ अटपटा सा लिखा हुआ था, मगर उसकी सहेली ने मुझे खबर दी और कहा कि यह उसका ताज़ा कलाम है, मुझे पढना, समझना और अपनाना चाहिए....खैर यह थी हमारी कोमन फ्रेंड की फ्रेंडली नसीहत, बहरहाल पढ़तें है आपके साथ उसकी नज़्म को:
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"अपने
वुजूद को
एक जंगली फूल का
ज़ज्बा-ओ-शक्ल दे रही हूँ
जो बिना किसी जद्द-ओ-जेहाद के
बिना किसी चाह और उम्मीद के
खिलता भी है
और मुरझा भी जाता है. "
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प्रत्युत्तर :
बहोत ही उम्दा लगी है मुझे उसकी नज़्म (आपको भी लगी होगी शायद) , मैने पढ़ा और समझा भी मगर अपना नहीं पाया.....क्योंकि मुझे लगा अल्फाज़ बदल गए हैं मगर मायने वही है.....किसी भी प्रेम पर आधिकारिकता (पजेसिवनेस) जब हावी हो जाती है तो इन्सान यह चाहने लगता है कि दूसरा उसकी व्हिम के अनुसार खुद को बदले.....जब दूसरा उम्मीदों को 'कम्प्लाई विद' नहीं कर पाता तो एक अजीब स़ी खीज पैदा होती है और इन्सान फिर खुद को बदलने की घोषणा करने लगता है......या झूठे सच्चे कन्फेसन करने लगता है.....या डिप्रेसन में क्रमशः आने लगता है...उम्रें बीत जाती है...और इन्सान वहीँ का वहीँ खड़ा रहता है....या निकल पड़ता है एक अंतहीन यात्रा पर जिसकी कोई मंजिल नहीं होती....जिसके कोई रास्ते भी नहीं होते.

हाँ कुछ सोच आये जेहन में जिन्हें आपसे शेयर कर रहा हूँ.
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लोहा पारस से छू जाये...................
क्यों दे रही हो
अपने अस्तित्व को
कोई रूप
मुझे ना बदल पाई
तो खुद को इस तरहा
बदलने का ज़ज्बा
क्यों लिए हुए हो.

फूल कि फ़ित्रत
महज़ खिलना है
अपनी ही मस्ती में
चाहे जंगले हो या
बस्ती........
फूल बस खिलता रहेगा
बेखबर इसके के
उसे मुरझाना भी है.

आगाज़ और अंजाम
दोनों की बातें करनेवाले
खिलने से पहिले ही
मुरझा जाते हैं..........
किसी से उम्मीद ना रखने कि
कसम खानेवाले
खुद से उम्मीदों के
अम्बार लगा लेते हैं.....

चाह को नकारना
बहोत आसान है
मगर खुद को चाह से
करना आज़ाद
असल दरवेशी है
असल फकीरी है............

जब तक वुजूद की बात रहेगी
किसी को भी बदलना नामुमकिन है
खुद को भी
जग को भी;
और जब भुला जाता है वुजूद
कौन हम ?
कौन दुनिया ?
बस एक नशा सा होता है
बेखुदी का
रूहानी........
परे इस दुनिया से
जहाँ किसी को किसी के लिए
बदलने कि ज़रुरत नहीं होती
और ऐसे घटित होता है
एक नैसर्गिक बदलाव............

करदो हवाले खुद को
उस परम अस्तित्व के हाथ
भूल कर हस्ती अपनी
ना जाने कब लोहा
परस से छू जाये.......

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