Monday, June 7, 2010

प्रतिद्वन्द...(आशु रचना)

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अद्भुत है
यह द्वन्द
स्वयं से
स्वयं का
प्रतिद्वन्द...

अंतर
कहता है
यह है
निस्सार,
होता है
तुरंत
बाह्य का
प्रसार...

जीये हैं
जिन
मान्यताओं के
बीच,
खड़ा किया
उद्यान
आग्रहों से
सींच
सींच...

किसको
भुलाएँ
रखें किसको
हम
याद,
द्वन्द के इस
जंजाल से
कैसे हों
आज़ाद...

जो हैं
निस्सार
नहीं पा सकते
उस से पार,
अद्भुत है
मित्रों
यह
परिभाषाओं का
व्यापार...

वैधानिक
चेतावनी
लिख कर
पा लेते हैं
मुक्ति,
तज्य को
अपनाकर
पा लेते हैं
तृप्ति..

चलेंगे
दो कदम
आगे
हटेंगे
पीछे
दो डग,
रहेंगे
डटे वहीँ पर
होगा तय
कैसे मग...

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