Friday, February 12, 2010

हो संशय निर्मूल मेरा........

१२.२.२०१०

(महाशिवरात्रि के सक्रिय अवसर पर प्रेम ! )

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होकर प्रेममय
देवी ने
किया था समर्पित
अपने संशयों को
स्वयम को
बिना शर्त
अपने ही अर्धांग
शिव को......

ऐसे थे वे
अप्रश्न प्रश्न
संभव नहीं थे
जिनके
कोई भी
दार्शनिक
प्रत्युत्तर......

देवी ने किया था
संबोधित :
हे शिव !
क्या सत्य है आपका ?
क्या है यह विस्मय भरा विश्व ?
क्या है बीज इसका ?
क्या है धुरी जागतिक चक्र कि ?
प्रतिमाओं पर आच्छादित किन्तु
प्रतिमाओं के परे....
क्या है यह जीवन ?
स्थान, समय, पहचान, मान्यता,विचार के
जाकर परे
कैसे करे
पूर्णतः प्रवेश इसमें ?

तड़फ थी शक्ति की
कुछ विचित्र सी,
नहीं करना था
शान्त उसे
बौद्धिक
जिज्ञासाओं को,
घटित होना ही था
वांछित
शांति थी
अभीष्ट
प्रेम था
इष्ट
उपदेश नहीं
तक़रीर नहीं......

कहा था देवी ने :
हे शिव !
जानना नहीं है
उद्देश्य मेरा
बस हो संशय
निर्मूल मेरा........

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