एक शाम कुछ ऐसा हुआ, मेरा अज़ीज़ मुल्ला नसरुद्दीन अपने दो दोस्तों के साथ रेलवे स्टेशन पर दौड़ता हुआ देखा गया.
सुना है तीनों ही नशे में धुत्त थे. दोनों दोस्त ट्रेन में सवार हो गए, मुल्लासाहिब का पांव फिसल गया. दोस्त लोग थे ट्रेन में और मुल्ला प्लात्फोर्म पर.
छोटा सा स्टेशन, सब वाकिफ एक दूसरे से, सब जानते हैं कि क्या हो रहा है ? स्टेशन मास्टर ने मुल्ला को उठाया, और कहा, "नसरुद्दीन अफ़सोस की बात है कि तुम चूक गए, ट्रेन नहीं पकड़ सके, तुम्हारे दोस्त कामयाब हो गए."
मुल्ला बोला, " अरे वे तो मुझे पहुँचाने आये थे, मैं तो अगली गाड़ी पकड़ लूँगा. फ़िक्र है तो उनकी, क्या होगा उनका, जो भयंकर नशे में धुत्त है,"
यह बात और थी मुल्ला कि साँसों से भी मय की खुशबू लहरा रही थी.
(कुछ ऐसा ही होता है हम सब के साथ.यह नहीं समझा जा सकता कि जो चढ़ गया वह सफल हो गया....वह कहीं पहुँच जायेगा........ जो नहीं चढ़ पाया वह असफल हो गया...उसका कुछ खो गया. यहाँ चढ़नेवाला- ना चढ़नेवाला, कामयाब- नाकामयाब, जीता हुआ-हारा हुआ, सब एक से बेहोश है. ज़िन्दगी के आखीर में सब का हिसाब बराबर हो जाता है. अमीर गरीब, ज्ञानी-अज्ञानी सब एक से हो जाते हैं. मौत सबको बिलकुल कोरी स्लेट की तरहा कर देती है. बस जो होशमंद है उनके लिए संभावनाएं है, )
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