Wednesday, February 17, 2010

मुल्ला नसरुद्दीन का 'उल्टा' सफ़र........

मेरे यार मुल्ला नसरुद्दीन को बहुत सुकून मिलता है अपनी गलतफहमियों को जीने में. उनसे छूटने का कोई ज़ज्बा नहीं रखते. उनके पास उनकी हर बात का जस्टिफिकेशन रहता है. जब भी मैं कहूँगा, "अमां यार मुल्ला, कुछ ऐसा भी तो कर सकते थे." मुल्ला कहेगा,"तुम पढेलिखे लोग एकदम थ्योरिटिकल होते हो. तुम क्या जानो ज़िन्दगी की असलियत को. हम ग्रासरूट वाले जानते हैं कि ज़िन्दगी की हकीक़तें क्या होती है." कोई ऐसा दोस्त जिसकी स्कूली तालीम की अपनी सीमायें होती है, और अगर वो टोके मुल्ला को तो कहेंगे, "माना कि हम भी तुम्हारी तरहा बहुत तालीम नहीं हासिल कर पाए मगर मासटर के साथ रहते रहते हमें चीजों को संजीदगी से सोचना आ गया है,अमां ऐसे हालात में ऐसा ही करना 'बेस्ट' था." जुबान है बिना हड्डी की, जब चाहे मुल्ला--- जैसा उसे 'सुइट' करे कहे ड़ालता हैं.
अब उस दिन की ही बात लीजिये. मुल्ला कहीं से लौट रहा था ट्रेन से. सन्डे का दिन था, हम को खबर की थी कि मासटर आज तो तेरे पास करने धरने को कुछ नहीं है, सुबह सुबह अखबार-रिसाले कुछ कम चाट लेना, हम को लिवा लाने स्टेशन ज़रूर चले आना. तो साहिबान हम पहुँच गए थे स्टेशन. मुल्ला उतरा था ट्रेन से. चक्कर खाता हुआ सा लग रहा था. पूछ लिया था हम ने, "मुल्ला थोड़े बीमार से लगते हो." नसरुद्दीन ने कहा, "मासटर तुम तो जानते ही हो, जब भी ट्रेन में सवार होता हूँ और कभी कभार मुझे उल्टा सफ़र करना होता है याने जिस तरफ ट्रेन जा रही हो उस तरफ मुझे पीठ रखना पड़ती है---तो मुझे सर दर्द, चक्कर और उलटी सी होने लगती है.बैचैन हो जाता हूँ मासटर-बहुत परेशान.'
"भले इंसान सामने बैठे आदमी से पूछ लिया होता कि भई मैं जरा तकलीफ में हूँ, जगह बदल लें." मैने अपनी मास्टरी दिखाई थी याने आदतन अपना 'ज्ञान' दे दिया था.
नसरुद्दीन ने कहा, "मासटर क्या समझते हो खुद को ? हम ने भी ऐसा ही सोचा था, मगर क्या करते हम--मजबूर थे---सामने की सीट खाली जो थी--वहां कोई भी नहीं था, किस से पूछते ?"
मैने मुल्ला से कहा-- "चलो सन्डे की सुबह है-फुर्सत में हूँ, मेरे फ्लैट पर चलो, मुझे चाय नाश्ते पर तुम्हारी कंपनी मिल जाएगी." (कैसे कहता तुम्हारी तवियत बहल जाएगी.)

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