Saturday, February 27, 2010

एक चिंतन : एक प्रार्थना

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प्रभु बनूँ
मैं तुल्य
कमल के,
चेतन यह
उत्पन्न हो
मुझमें,
फलीभूत
पंकज
कीचड़ में,
रहता नहीं
लिप्त है
उसमें,
रखूं पदार्थ
स्वर्ण धनादि
हेतु
जीवन निर्वाह,
नहीं बनू मैं
दास
पदार्थ का
करूँ ना
उसकी पर्वाह,
भोगुं
किन्तु
ना बनू
भोगमय,
साक्षी हो कर
रहूँ
संयमित
और
निरामय....

(जैन परंपरा के एक आख्यान पर आधारित यह रचना.मूल प्राकृत श्लोक : जहां पोमं जाले जायं नोवलिप्पयी वारिणा, एवं अलित्तं कामेहिं, तं वयं बूम माहणं---राजा परदेशी का आख्यान)

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