Tuesday, February 16, 2010

आगोश....

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हो गए थे
हमसफ़र
अनगिनत तारे
बताने राह
रात बेचारी को,
सोचें थी
जुदा जुदा
सबकी
मंजिल-ए-मक़सूद के
मुतअल्लिक,
छूट भागे थे
खुदपरस्त
हमसफ़र सारे
बाद वक़्त गुज़ारी के
देखा किया था जब
सूरज को
ज़ल्वा हुए,
और.... दर्द के
बिस्तर पर
सो गया था
बेसुध सा कोई,
मिल जाये
आगोश
सिर को
किसी का
ज़रूरी तो नहीं.....

[मंजिल-ए-मक़सूद=अंतिम उद्देश्य/goal, मुतअल्लिक=सम्बन्ध में/बारे में, ज़ल्वा=उदय, आगोश=गोद /Lap -यहाँ आगोश लफ्ज़ को आलिंगन (embrace) के रूप में नहीं इस्तेमाल किया गया है.]

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