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उसके प्यासे शब्द कुछ इस तरहा बातें करते थे:
"अपनत्व चाहिए !
कोहरे भरे
धुंधलेपन में
कुछ भी
दिखाई
नहीं देता....
गली कूंचों में
ढूँढा
महल-बागों में
ढूँढा....
मिल भी जाता
यदि
मैने बाहें
फैला दी होती.
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कैसे समझता उसे कि:
अपनत्व की
नदी
बाँहों से नहीं
ह्रदय से
निकलती है.
सपनों में देखे
संसार को
छुआ है कभी
तू ने ?
अपनापन
'यदि' से
दूर है
बहुत,
मिलना है तो
बाहें नहीं
दिल
खोल के
मिलो
मुझसे.
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