Thursday, July 1, 2010

बंधन.......(दीवानी सीरीज)

सोचों की जड़ में क्या होता है, जिन्दगी के जानिब हमारा नजरिया उसी का नतीजा हो जाता है। दो या दो से ज्यादा इन्सान जब एक दूसरे से जुड़ते हैं तो इसे साथ चलने का ज़ज्बा भी समझ सकते हैं और 'बंधन' भी.......रिश्तों की गुणवत्ता इस पर निर्भर करती है कि हमारी उनको देखने कि शुरुआत कैसे हुई , हमने उन्हें साथ चलने का एक शुभ अवसर, साथ रह कर खुद को बढ़ाने का एक सौभाग्य, प्रभु की कृपा, एक नैसर्गिक घटना समझा या समझा की यह है एक बंधी हुई शै....एक बंधन ....एक मजबूरी....एक निभाना.....एक फ़र्ज़ अदाई.

जाल : दीवानी की बात

# # #
देखिये वह क्या कहती थी :

"जीवन के
इस बंधन में
इतने जकड़े हुए हैं
हम लोग
कि कुछ और
नज़र ही
नहीं आता.

ज्यों ज्यों
बढ़ते हैं आगे
फंसते ही चले जाते है
अपने ही बुने
जाल में
मकड़ी की
तरहा. "

क्यों हो गया ऐसा ? : विनेश की बात :

"क्यों हो गया ऐसा ? यह सवाल मेरे दिलो-जेहन को झकझोर रहा था...वह 'बेडरूम' में करवटें बदल रही थी और मैं 'स्टडी' में अपनी 'रोक्किंग' चेयर पर बैठा सिगार के धुवें में कुछ ऐसा सा देख रहा था:
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# # #
जब हम उड़े थे
खुले आकाश में
कोई भी बंधन
नहीं था
बीच
तुम्हारे और
मेरे.

बरसों की
जमी धूल
अचानक
तूफाँ बन कर
आ गई थी
सामने
तुम्हारी असुरक्षा ने
खोल दी थी,
किताब एक
नियमों-उपनियमों की
करणीय और
अकरणीय की,
दिल की सच्चाई से
महान
समझा था
हमने
अग्नि की साक्षी को,
जो हमारे दिलों में बसी
प्रेम की अगन से
बहुत मंद थी,
सिंदुर कि लालिमा से
अधिक चमकते थे
चेहरे हमारे
होते थे जब हम करीब
इक-दूजे के,
वेदमन्त्रों से कहीं ज्यादा
तेजोमय और
मधुर थे वे स्वर
जो बिना गूंजे
गूंजते रहते थे
तेरे होने में,
मेरे होने में,
हमारे होने में.
यही नहीं तुमने
जामा पहनवाया था
निकाहनामे का भी
इस रूहानी रिश्ते को
ताकि खुश हो सकें
वे लोग,
जिनमें तू पली बढ़ी थी,
रजिस्ट्रार की
किताबों में करे
तुम्हारे मेरे
दस्तखत
इस मकसद से थे कि
यह रिश्ता होगा और
मुक्कमल
और ज्यादा मज़बूत,
इतने बड़े बौझों को कैसे
उठा पाते
यह नाज़ुक से
एहसास
जो फूलों से भी
बढ़कर
कोमल थे,
नाम दे कर
बंधन का
बे मौत
कर दिया था
क़त्ल
हमी ने
उन खुली सांसों को
जिनकी
बुनियाद पर
हमारी
मोहब्ब्त का महल
हुआ था खड़ा.

सच कहती हो तुम:
ज्यों ज्यों
आगे बढ़ते हैं
फंसते ही
चले जाते हैं
अपने ही बुने
जाल में
मकड़ियों की
तरहा....

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