Monday, March 30, 2009
किए सवाल अंधेरे ने बाती से...
क्यों
कर रही हो तबाह
वज़ूद अपना
जल जल कर
ए बाती !
देखो मुझे,
बैठा हूँ
और
कायम हूँ
सुकून-औ -चैन से
पनाह उसी की में,
जिस के लिए
जलती हो तुम
लिए मकसद
मिटाने का मुझ को...
बेवफा दीया
भरता है
आगोश खुद के में
अपने हमनवा
तेल को,
डूब कर जिसमें
करती हो तुम
कुर्बान खुद को
और
होता है नाम
दीये का.....
कहते हैं सब,
लूटा रहा है दीया
रोशनी,
और
जलाती हो तुम
जिस्म खुद का...
जला देती हो
जल जल कर तुम
दीये के उस
हमनफस को
और तब
होती हो तूडी-मूडी सी
बुझी-बुझी सी तुम
और बस खाली सा दीया,
होता हूँ छाया सब तरफ
मै सिर्फ़ मै
मैं घनघोर अंधेरा………
ए कोमलांगी
गौरवर्णा
इठलाती
बल खाती
बाती !
पूछता हूँ आज तुझसे
करती हो किस-से मोहब्बत
दीये से,तेल से या मुझ से………..?
फ़ना करती हो
किस के लिए वज़ूद अपना…….?
क्या है तुम्हारी फ़ितरत……?
क्या है फलसफा तेरे रिश्तों का….?
कैसी है तेरी ज़फाएँ…….?
कैसी है तेरी वफायें …….?
Sunday, March 29, 2009
पुकारा था पहाड़ को ज़मीन ने....
करते हो क्यों हाय-तौबा
छूने आसमान को,
लाख मुश्किलें उठा कर भी
छू नहीं सकता
एक बौना हसीन चाँद को,
समझाया था अपना बन
उस पत्थर -दिल की हम-नशीन ने
पुकारा था पहाड़ को ज़मीन ने…..
जब गिरेगी बिजलियाँ कड़ कड़ा कर
गिर पड़ेंगे सींग तुम्हारे टूट.कर,
हिस्से तुम्हारे बदन के
मुँह मोड़ेंगे तुझसे रूठ कर,
माना के ज़ज़्बा-ए-गुरूर तुम्हारा है आज़
झुकेगी गर्दन शर्म से तुम्हारी कल मगर
कह डाला था उस ज़मीन पुर-यकीन ने
पुकारा था पहाड़ को ज़मीन ने……
काटता है च्यूंटी तुम्हारी
सूरज हर रोज़ चमक कर
छेदती है तुझे बर्फ़ीली हवाएँ
और तपती आँधियाँ बहक कर
छोड़ दो नशा-ए-गुरूर तुम
राज़-ए-हकीकत समझ कर
कही थी यह बात एक जाहिल से एक ज़हीन ने
पुकारा था पहाड़ को ज़मीन ने…….
Saturday, March 28, 2009
प्रार्थना या संकल्प
तुम ज्योति रूपा हो
तेरा ध्यान धर
मैं स्वयं को
जागरूक बनाऊं
अंधी मान्यताओं से
मुक्त हो
स्वयं का तम दूर करूँ
मानवता को आलोकित करूँ
एवम चैतन्य बन जाऊँ…….
हे माँ !
तुम लक्ष्मी रूपा हो
धनधान्य का
स्वरुप हो
तेरा ध्यान धर
समृद्धि बढाऊँ
स्वयं की
मानवता की
कृषि, सेवाओं और वस्तुओं के
उत्पादन में ऋजुता से
योगदान करूँ
अपव्यय एवम
व्यर्थ-व्यय से
स्वयं को एवम
मानवता को बचाऊँ ……………
हे माँ !
तुम शक्ति हो
ध्यान तुम्हारा धर
स्वयं को
तन, मन एवम मस्तिष्क से
शक्तिमान बनाऊँ
असहाय का सहायक बनूँ
निर्बल का आलंब बनूँ
अपने बल को
सद्कार्यों में लगाऊँ ………
हे माँ !
तुम दया का रूप हो
करुनामयी हो
प्रेममयी हो
ध्यान तुम्हारा धर
ह्रदय में प्रेम,करुणा
एवम दया के सागर लहराऊँ
प्रेममय हो मैत्री की
अलख जगाऊँ ……………..
Wednesday, March 25, 2009
पल और खंडित दृष्टि (दीवानी सीरीज)
उसकी वहां की 'सृष्टि' (शादी) के बिखरने के बाद उसने शायद खुद को माजी में डुबोया था, और गुज़रे वक़्त को फिर से महसूस किया था…….एक दफा मेरे इन्बोक्स में उसका यह मेल था:
______________________________
# # #
पल में,
'प' तुम्हारा था
और
‘ल’ था मेरा,
अब
कहाँ से लाऊं
मेरे वाक्य के
शब्द,
अब
किस से बाँधू
मैं समय को ?
खंडित दृष्टि (मेरा प्रत्युत्तर)
______________________________
# # #
प्रिये !
तुम ने तो
हर शै को
बस बांटा था,
और
आज
समय की
अतिसूक्ष्म इकाई
पल को भी
बाँट रही हो तुम,
तुझ में
और
मुझ में.....
समर्पण भी
तुम्हारा
था खंडित
और
स्वीकारना
मुझ जैसे को भी
था अहम् मंडित...
इसीलिए
इस खंडित
दृष्टि ने
बनायीं थी
एक
खंडित सृष्टि ,
काश ! अपनाती तू
समग्रता
सहज स्वीकार्यता …….
'तुम' 'मैं' बन जाते
'हम''
बन जाता
'तेरा' 'मेरा'
हमारा,
ना होती ज़रुरत,
ए मेरे बिछुड़े दोस्त !
समय को बाँटने की
वक़्त को बाँधने की…………
Tuesday, March 17, 2009
कौन है सच्चा-कौन है झूठा ?
दुनिया ने कहा
संग हो तुम,
उस ने कहा
खुदा हो तुम,
माशरे की मानूँ
के दिलबर की
कौन है सच्चा ?
कौन है झूठा ?
आईने ने कहा
बदसूरत हो तुम,
महबूब कहे
हसीन हो तुम,
आँखों देखा मानू
के कानों सुना,
कौन है सच्चा ?
कौन है झूठा ?
खाक ने कहा
फानी हो तुम,
आशिक कहे
ला-ज़वाल हो तुम,
फैसला जेहन का मानूँ
के दिल का,
कौन है सच्चा ?
कौन है झूठा ?
( संग=पत्थर/stone—यहाँ मूरत/बुत के लिए इस्तेमाल हुआ है. माशर=समाज/सोसाइटी, आईना=दर्पण/मिर्रोर, बदसूरत=कुरूप/उगली, महबूब=प्रिय/beloved, हसीं=सुन्दर/beautiful , खाक=धूल/dust , फानी=नश्वर/पेरिशाब्ले, आशिक=प्रेमी/लोवर, ला-ज़वाल=immortal/अनश्वर/अमर, जेहन=मस्तिष्क /ब्रेन, फैसला=निर्णय)
Monday, March 16, 2009
मिठू और सूरदास
अभी कुछ देर पहिले एक मित्र से सामाजिक स्वीकृति पर विचारों का आदान प्रदान हो रहा था.....समाज का एक चित्र उभरा जेहन में.....पेश-ए-खिदमत है.
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स्वर्ण पिंजर में
मखमली आसन पर
सप्रेम विराजित
अंगूर और अनारदानों का
भोज करते हुए
मिठु को उसने सिखाया
"राम राम"..... "राधे श्याम ."
बाहर एक फटेहाल
सूरदास
भूख-प्यास से ग्रसित
ठण्ड में ठिठुरता
मर गया था
जपते जपते:
"राम राम"..... "राधेश्याम ."
Sunday, March 15, 2009
बरखा रानी
हो आरूढ़
बादलों के रथ पर
बरखा रानी.................
धरा जननी
व्यथित शुष्क
पुत्री विरह में
पवन सखी लाए
संवाद लाडो के
आगमन का………..
मुस्काई धरा
तत्पर भई
पाने सुख
आतम्जा स्वागत का..........
इंद्रधनुष का
सतरंगा
हार गले में
विद्युत करघनी
सजी कटी पर
बूंदे करे झंकार
पायलसी
आई पीहर
लाडली कर
अनुपम शृंगार.................
जननी ने भर
आलिंगन
किया मिलन
स्वापुत्री से
खिल उठी
jhulsi काया
हर्ष चहुन दिखी जो छाया.................
सपने सोये जाग गये
निर्भय मयूर
ताने छतरि
वन उपवन में
नाच गये...............
Friday, March 13, 2009
रिश्तों का फलसफा
आग चली गई
सुराही टूटी
पानी बह गया
फूल गिरा
महक रह गई
ख्वाब टूटा
एहसास रह गया;
रिश्तों का फलसफा
अजीब है मेरे दोस्त !
कहीं मुंह मुड़ते ही
भुला दिया जाता है
कहीं बिछुड़ने पर
यादों की गहरायी में
बसा लिया जाता है........
किनारा -एक नज़्म चलते चलते
खड़ा किनारे पे पुकारे जा रहा था वो .
कसमों वादों के खुद के ही फलसफे को
यूँ क्यूँ.. लिल्लाह नकारे जा रहा था वो .
डूबना नसीब था मुझको डूब गया
बेवजह क्यूँ आंसू बहा रहा था वो .
होश गुम थे नशा सा छाने लगा था उस पर
बंधी कश्ती को किनारे पर खेये जा रहा था वो .
बच के निकला था मैं दूसरे किनारे से
सुन के यह बात क्यूँ डरे जा रहा था वो .
इस पार उस पार - ना भरमाओ (दीवानी सीरीज)
दोनों कवितायेँ आप से 'शेयर' कर रहा हूँ।
इस पार कभी उस पार कभी : संदेशा दीवानी का
हम बिछुड़े मिले हज़ार बार
इस पार कभी उस पार कभी…
हम कभी अश्रु बन
आँखों से टूट पड़े
हम कभी गीत बन
साँसों से फूट पड़े
हम टूटे जुड़े हज़ार बार
इस पार कभी उस पार कभी…
तम के पथ पर तुम
दीप जला धर गए कभी,
किरणों की गलियों में
काजल भर गए कभी
हम जले बुझे प्रिय बार बार
इस पार कभी उस पर कभी…
फूलों की टोली में
मुस्काते कभी मिले,
शूलों की बाँहों में
अकुलाते कभी मिले
हम खिले झरे प्रिय बार बार
इस पार कभी उस पार कभी…
तुम बनकर स्वप्न थके
सुधि बनकर चले साथ
धड़कन बन जीवन भर,
तुम बंधे रहे गात,
हम रुके चले प्रिय बार बार
इस पार कभी उस पार कभी…
तुम पास रहे तन के
तब दूर लगे मन से,
जब पास हुए मन से
तब दूर लगे तन से,
हम बिछड़े मिले हज़ार बार
इस पार कभी उस पार कभी…
(यह रचना मेरी नहीं है : दीवानी ही जाने किसकी है।)
स्वयं को ना भरमाओ (मेरा प्रत्युत्तर)
मेरा मौन इस पार खड़ा
कुछ भी तुमको नहीं दे सकता
कहता बारम्बार यही
कोई आस ना लगाओ
स्वयं को ना भरमाओ…
मैं पिपसव्यथित
रीता गागर
चुपचाप पड़ा जो कोने में,
उसे ना सताओ
स्वयं को ना भरमाओ…
मैं एक भर्जित बीज
अंकुरण नितान्त असंभव
सुशीतल नीर संग्रह,
उस पर ना गंवाओ
स्वयं को ना भरमाओ…
मैं एक उत्पतित पौधा
मूल संक्रमण से जर्जर
शस्य-श्यामला धरा पर,
उसे ना लगाओ
स्वयं को ना भरमाओ…
मैं एक भटका पथिक
गंतव्य जिसका विस्मृत
है जो समूह से तिरस्कृत,
अंग ना उसे लगाओ
स्वयं को ना भरमाओ …
(भर्जित=भुना हुआ, उत्पतित=उखाड़ा हुआ)
Tuesday, March 10, 2009
जज्बा-ए-कबूलियत ...क्यूँ हुआ था ऐसा..
उम्मीद है कि आप मेरी इस लम्बी नज़्म को बर्दाश्त करेंगे. शुक्रिया !
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मेरी खुशनसीबी थी उसका मिलना मुझ से
शायद छूट सकता था ज़िन्दगी को जानना मुझ से
दतात्रेय के चौंसठ गुरुओं के मानिंद
वह गुरु था मेरा
उस-से बिछड़ने पर झांकना खुद में
हुआ शुरू था मेरा.
मेरा सलाम है :
उसके दिए हुए बे-इन्तहा दर्द को
मैंने भरी थी उस आह-ए-सर्द को
माजी पे पड़ी वक़्त की गर्द को
दोस्ती के फूलों के रंग ज़र्द को
दुनियादारी के उस अज़ीम नावर्द को.
बचपन से ही में प्यार से महरूम था
कहूँ की मैं हालात का मजलूम था
अपनी ही हीनता के हाथों में महकूम था
मेरा जीवन बस एक हस्ती-ए-मौहूम था
बहुत कुछ दे कर थोड़ा पा जाना चाहता था मैं
किसी की एक मुस्कान के लिए खुदको लुटाता था मैं
अपने खयालों में उजाड़ों को बसाता था मैं
एक भला इन्सान होने के भ्रम में जिये जाता था मैं.
मेरा ज़ज्बाती होना मेरी कमजोरी थी
हावी मुझ पर औरों की सीनाजोरी थी
तन्हा रह कर जहां में अधूरा होता था मैं.
दूसरों का पाकर साथ पूरा होता था मैं
पढ़ डाले थे बहोत कुछ फलसफे मैंने
धर्मग्रंथों के अनगिनित सफे मैंने
आदर्शवाद कूट कूट कर भरा था मुझमें
दुनियादारी के नुस्खों का शउर नहीं था मुझमे
मैंने बे-शर्त सौंपा था खुदको
थोड़े से प्यार और मोहब्बत के खातिर
ऊँचा उठनेवाले के ज़ज्बे थे साफ़
नज़रें थी उसकी चालाक और शातिर.
उसने वह लिया मुझ से जो उसके मुआफिक था
फजूल उसकी नज़रों में मेरा तौफीक था
जरिया था मैं और एक सीढ़ी ऊँचा जाने के लिए
इस्तेमाल हुआ था मेरा मंजिल तक पहुँचाने के लिए.
आँखे होते हुए भी मैं एक अँधा था
मज़बूत शख्सियत के परदे में लिप्त
मैं एक कमज़ोर ज़ज्बाती बन्दा था और
उसकी नज़रों में दोस्ती महज़ एक धंधा था.
वाह अपने मुद्दे में बहोत सावधान था
मुझे उलझनों में रखना उसका अवदान था
दुनिया के सामने मैं एक बड़ा निशाँ था
इस सहारे पूरा होता उसका हर अरमान था.
मेरी सोचें मेरे आदर्श बस कहने की बातें थी
उसकी नज़रों में बस आनेवाली सुहानी रातें थी
दौलत और ताकत सबसे बढ़कर उसकी चहेती थी
शराफत , सदाकत, तसव्वुफ़ बस मेरी ही खेती थी.
रिश्तों का यह सौदा यारब बराबर का था
तराजू के पलड़ों में सामान बराबर का था
एक तरफ बोझा अरमान-ए- रहजन का था
दूजे पलड़े में सामान उसूल-ए-रहबर का था.
गर कोसूं उसको तो यह मेरी नादानी है
हर बात से जुडी हुई मेरी भी कहानी है
पहचान ना कर पाया था शायद मैं उसकी
हर हामी मेरे साथ रहा करती थी जिस की.
अपने खालीपन को ज़हर से भरने का नतीजा है
खुद की गफलतों का यह सब एक खाम्याज़ा है
दूसरों की नज़रों में ऊँचा बने रहने की
कीमत चुकाने का ज़ज्बा भी तो नासज़ा है.
बसों में लिखी यह हिदायत क्या खूब है
मुसाफिर अपने असबाब की खुद हिफाज़त करे
सोया मुसाफिर लुट जाये अपनी ही गफलत से
मकसूम अपने की किस से वो शिकायत करे.
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मायने
नोट:
कई जगह पर मैंने हिंदी/संस्कृत शब्दों का प्रयोग किया है जैसे आदर्शवाद, अवदान आदि क्योंकि मुझे माकूल अल्फाज़ उर्दू/फारसी के मिल नहीं पाए थे, पढ़नेवालों से गुज़ारिश है की मेरी इसमें मदद करें, इनके समानार्थक शब्द बता कर.
Monday, March 9, 2009
सफ़र.....
मेरी आँखों में हर लम्हे ज़िन्दगी का सुरूर है......
जश्न मनाता हूँ चलते हुए टेढ़ी-मेढ़ी राहों पर
हर मकाम के वजूद में मेरी मंजिल का जो नूर है.
हमसफ़र को मनाये कितना के मायूसी होती नहीं अच्छी
मगर यारों वो है कि उसूल-ओ-सोचों से मजबूर है.
हौसला रखतें है इन राहों पे कदम बढ़ानेवाले
माशरे के हर शै को क्यों ना खुद पे ही गुरूर है.
ठोकरें खा कर संभल जाना ही फ़ित्रत है हमारी
अहल-ए-मसाफ़त मासूम स़ी नजाकत से मजबूर है.
(अहल=लोर्ड/मास्टर मसाफ़त=सफ़र)
जज्बा-ए-कबूलियत : वापसी जमीर की
# # #
चला गया था वो बेवक्त
छोड़ कर सब कुछ
आखरी सांस लेकर
अनजाने दर्द देकर……
समझदारी थी मेरी कि
निभाई थी मैने रिश्तेदारी
बतौर एक डॉक्टर की थी तीमारदारी
किया था सब कुछ मैने
दिल से, मेहनत से,
इल्म से, वक़्त से, ताल्लुकात से
निकला किये थे अल्फाज़ सभी की जुबाँ से
मिलता है ऐसा अपना रब की ही दुआ से.
आँखों का पानी पोंछ
पहला फ़ोन किया था मैने
और चल निकला था सिलसिला
मेरे इत्तला देने का
और जवाब में मिली तारीफों से
मेरे रफ्ता रफ्ता हीरो बनने का.
मुझे लगने लगा था
ऊँचा हो गया था कद मेरा
माशरे और खानदान में
बढ़ गया था रुतबा मेरा.
पूछी जा रही थी
हर छोटी बड़ी बात मुझ से
कहे जाते रहे थे
बेहतरीन अल्फाज़ मुझ से.
लाश को सँवारने का
हर काम किया था मैने
मैयत्त को कफ़न से
इन्ही हाथों से सजाया था मैने.
मेरे लफ़्ज़ों में मेरे किये का जिक्र
बिन बुलाये मेहमान की तरहा
आये जा रहा था
मेरी हर-एक हरक़त में ‘कर्ता भाव’
समाये जा रहा था
मेरा भरमाया सा… इतराया सा ‘अहम्’
रबर के गुब्बारे की मुआफिक
खुद को फुलाए जा रहा था.
उसका यूँ भरी जवानी में चले जाना
मेरी बहन की मांग का सिंदुर पुछ जाना
बिजलियाँ गिर जाने से कम ना था मुझ को
मगर लगाया गले से जब था उस को
दे रहा मैं दिलासा जब था उसको;
देखें सारे और सराहे मेरे ज़ज्बों को
उस नश्तर स़ी चुभती घड़ी में
किसी कोने में इस बात का एहसास था मुझ को.
बड़े बड़े तब्सिरे किये जा रहा था मैं
मौके को ‘अहम् तुष्टि ’ का सामान
बनाये जा रहा था मैं
एहसास-ए-दर्द के असर से थर्राए जा रहा था मैं
फिर भी दुनियादारी को निभाए जा रहा था मैं.
देते कन्धा ज़नाज़े को चेहरे पे मेरे ‘दर्प’ था
राम नाम सत की हांक में जोशीला मेरा हर हर्फ़ था
मेरी तारीफों का डंका बजता रहा हर तरफ था
गमगीन माहौल में खुद को बनाये रखना मेरा ज़र्फ़ था.
चिता की लकड़ियाँ बढ़ बढ़ कर हाथों से सजाई थी मैने
हर देखनेवाले की नज़र खुद पर यूँ ठहराई थी मैने
उजड़े से उस दयार में अपनी एक अजीब दुनिया बसाई थी मैने
मातमगुसारी की भी सारी रस्में बखूबी निभाई थी मैने.
मातमपुर्सी के दरमियाँ बेमहबा तक़रीर मेरी थी
अखबारात में मेरा नाम हो रोशन वो तहरीर मेरी थी
जार जार रोये जा रहा था दिल मेरा टुकड़े टुकड़े होकर
उस खिजां-ए-गम में दिखावे की बहार मेरी थी।
मुद्दत-ए-मातम में मेरा सलीका-ए-लिबास अनूठा था
मेरी हर बेजा हरक़त ने लोगों की वाह वाही को लूटा था
दौलत और शोहरत को देख मैं हर शै से लामूता था
मेरी सोचों का बयान-ओ-इज़हार मेरी तरहा ही झूठा था.
मसान के बिरागी माहौल में चुप खड़ा था गुमसुम
“मैं कौन हूँ ?” सवाल खुद से कर पाया था मैने
आंसुओं, पछतावे और जागरूकता से पक कर खुद को
अपने ज़मीर ओ रूहानी ज़ज्बों को फिर से बुलाया था मैने।
मायने -
रफ्ता-रफ्ता=धीरे धीरे ,तब्सिरे=टिप्पणियां ,नश्तर=छुरा ज़र्फ़=योग्यता/ capability
मातमपुर्सी = शोक में अफ़सोस जताने मिलना, बेमहबा=बेधड़क/without hesitation
तक़रीर=भाषण, तहरीर=लिखावट, खिजां=पतझड़, शै=ऑब्जेक्ट /वस्तु, बहार=बसंत
सलीका-ए-लिबास=ड्रेसिंग सैंस, ज़ज्बा=भावना, मुद्दत=अवधि/पीरियड, मसान=शमशान, ज़मीर=अन्तः-करण, रूहानी=आत्मिक/अध्यात्मिक,
मातमगुसारी =शोक जाहिर करना
जज्बा-ए-कबूलियत---एक सवाल खुद से
# # #
मानता हूँ
और
कहता हूँ कि
अहसान फरामोश है वो …….
वो जिसको मैने
उठाकर जमीं से
ऊँचाइयों तक पहुँचाया था
जिसे चलना और दौड़ना सिखाया था
जिसे बोलना और चुप रहना सिखाया था
जिसे हँसना और रोना सिखाया था
जिसे सिर उठाकर जहां में जीना सिखाया था....
वह शख्स जिसे
चार अल्फाज़ के हिज्जे तक
आते नहीं थे लिखने
आज 'इकोनोमिक टाईम्स' पढता है
इंग्लिश न्यूज़ सुनता है
बार में स्टीवर्ड को
अंग्रेजी में ‘ड्रिंक्स’ और ‘स्नेक्स ’ का
आर्डर देता है...
जो कप से सौसर में डाल कर चाय पिया करता था
आज छुरी काँटों के सहारे खाता है
'ब्रांडेड अटायर' पहनता है
लम्बी गाड़ी में चढ़ता है
ऐ. सी. के साथ सोता है
होम थियेटर में फ़िल्में देखता है
हफ्ते में एक दिन पार्टी ‘फेंकता’ है...
माशरे की हर मिल्लत में तक़रीर करता है
हर समाजी मंसूबे में चंदा भरता है
अपने बच्चों को डोनेशन(घूस) दे दे कर
नामी गिरामी स्कूलों में पढाता है
चिकनी चुपड़ी बातों से
अपनी इज्ज़त और रुतबा बढाता है.....
सलीके किसने सिखाये थे उसको ?
मैने सिर्फ मैने,
उसे एक सेमी-लिटरेट मानव से
लिटरेट एंड वेल मैनर्ड महा-मानव
बनाया था किसने……किसने ?
मैने सिर्फ मैने………..
इस ऐश-ओ-आराम की ज़िन्दगी का हर सामान
मुहैय्या उसको कराया था किस ने ?
मैने सिर्फ मैने………
इस सिलसिला-ए-तामीर में
वह जुदा नहीं मेरा एक साया था
हर सागर लबों पे लगाने से पहिले मैने
उसके छलकते हुए जाम से टकराया था
ज़िन्दगी के हर सफे पर लिखा
सबक उसे सिखाया था
धंधे और जीने का हर गुर उसे सिखाया था
उसकी उदासियों में उदास होकर
उसे तह-ए-दिल से हंसाया था
उसकी हर मुश्किल को अपनी मुश्किल समझ
मदद का हाथ हरदम बढाया था
मेरी हर चीज को उसका भी माना था मैने
उसके हर दुःख दर्द को अपना सा जाना था मैने
मेरे हर सोच में उसकी रजामंदी थी
मेरे हर ठहाके में शामिल उसकी हंसी थी....
मेरे हर गुस्से को सहता था वह अपना बनकर
मेरी नज़रों को समझता था मेरा सपना बनकर
उस-से करीब कोई नहीं लगता था मुझको
अक्स खुद को आइना समझता था मैं उसको
खुद से ज्यादा भरोसा था उसपर मुझ को
उसकी शागिर्दगी-ओ-दोस्ती पे गुरूर था मुझ को
कहीं पर भी कभी जुदा ना देखा जाता था हम को
दो जिस्म एक जान-ओ-रूह कहा जाता था हम को....
Wednesday, March 4, 2009
ज़ज्बा-ए-कबूलियत : चद्दर ओढा रहा था मैं...
मैं एक ना था
मुझ में उस घड़ी
जिए जा रहे थे
इन्सां कई....
एक था सादा दिल
डरा हुआ था एक
एक था मरा हुआ
था अधूरा सा एक....
मैं खड़ा था करीब
उस वक़्त
आईसीयू के बिस्तर के,
पेशे से डॉक्टर था इसलिए ?
नहीं, तब मैं एक डॉक्टर नहीं
उसका सबसे नजदीकी रिश्तेदार था,
रिश्तेदार ही नहीं उसका हमदर्द था,
वो मेरी बहन का खाविंद ही नहीं
महबूब भी था,
बने थे दोनों
एक दूजे के लिए,
ले रहा था वह
साँसे आखरी,
मैं भूल कर अपनी तालीम मेडिकल की
अपनी बहन के दुखों को मैं देख रहा था,
मेरे अन्दर बैठा एक डरा, मरा
अधूरा इन्सान
ना जाने क्या क्या सोच रहा था……..
सफ़ेद लिबास में लिपटी
वह सूजी स़ी आँखों वाली औरत,
मेरी इकलोती बहन
ना जवान ना ही अधेड़,
पूछ रही थी मुझ से
क्या हुआ तेरे वादों का
क्या हुआ तुम्हारी और
तुम्हारे जैसों की डिग्रियों का
नहीं छीन सके ना तुम उसको
काल चक्र के रक्त सने दशनों से…………
बिस्तर पर लेटे मानव का
थम गया था सांस आखरी
बिना किसी का एहसान लिए
चल दिया था वह,
ना ली थी उसने लीवर
जो देनी चाही थी मेरी बहन ने,
ना ही किडनी
जो पेश की थी उसकी बहन ने,
समझता था ज्यादा मुझ से
सच्चाई मेडिकल साइंस की
या इंसानी ज़िन्दगी की
वह इंसान जो सोया था मौन,
तभी तो नहीं चाही थी उसने देनी
बीवी और बहन को
तकलीफ भरी अधूरी ज़िन्दगी,
बिछुड़ गया था वह खुद्दार
करके बौना हम सब को……….
आँखों से झरते अश्क
बहा ले गए थे उन हिम्मत भरी बातों को
जो ऐसे मौकों पर कहा करता था मैं,
जार जार रोते मेरे दीद
बना रहे थे गुनाहगार मुझ को,
शायद कोई गफलत मेरे से
कोई कोताही हुई थी मुझ से,
जो बना गई थी बेवा बेवक्त
मेरी बहन को
बहार आने से पहिले चली आई थी
खिजा चमन को....
क्या होगा इसके बाद
उसका और उसके बच्चे का
जिसने अभी पूरे किये थे
चन्द साल स्कूल के
क्या होगा उन अरमानों का
सजाये और संजोये थे
उसके लिए
मिल कर दोनों ने..
करोड़ों की दौलत लग रही थी
आज मिट्टी का धेला स़ी
मुझे लगा मेरा इंसानी नस्ल का इल्म अधूरा था
विज्ञान ज़िन्दगी की अनाटोमी का कोई दूसरा था
जुड़ गए थे हाथ मेरे वंदन को
झुक गया था मैं होने शरणागत प्रभु की
सोच लिए थे मैने अपने फ़र्ज़ के मंसूबे
गीली आँखों से उसके चेहरे पर
चद्दर औढ़ा रहा था मैं……..
Tuesday, March 3, 2009
जज्बा-ए-कबूलियत--मेरा इश्क
एक छलावा है
महज़ लेने का इक ज़ज्बा
देने का
एक दिखावा है.
मेरे अल्फाज़ में
तारीफें बसा करती है जो तेरी
वो कुछ नहीं
मेरी खुद-परस्ती की खेती है
सफ़ेद झूठ है मेरा कहना के
सिर्फ तू मेरी चहेती है.
भरोसे और निबाहने की बातें
जो खिलती है लबों पे मेरे
वो एक बनावटी रह्बनियत है
मैं हूँ उड़ता सा एक पंछी
बदलते रहना शब्-ओ-रोज़ रिश्तों को
मेरी बुनियाद है और एक हिकायत है.
कसूर जब भी देखता हूँ
कोई भी मैं तुम्हारा
मुआफी की बातें कर
बहलाता हूँ दिल तुम्हारा
धागा पकड़ कर उसका
जलील करता हूँ
वुजूद-ए-कामिल तुम्हारा.
आज़ाद खयाली की फ़ित्रत
सोचों की पाकीज़ा गहरायी
बस ऐसी ही उम्मीदें
मैं करता रहा हूँ तुझ से;
बातें खुली खुली स़ी
सोचें बड़ी बड़ी स़ी
मेरी जुबाँ ही पर हुआ करती है
कभी शिकवे-ओ-गुमान
कभी तंग-जेहनी
रिश्तों में ज़हर भरती है.
जो तेरा है वो है मेरा
तू गैर नहीं बस है मेरी
तुम्हारी साँसों में बसी
हर इक नफ़स है मेरी
लफ्फाजी कि हद तक ये सब
कहता रहूँगा मैं
खुदगर्ज़ी ० खुद्खायाली में
डूबा रहूँगा मैं.
मेरा इश्क इश्क नहीं
बांधे रखने का एक जरिया है
मेरी मोहब्बत नहीं है मोहब्बत
बस एक नफरतों का उफनता दरिया है.
न मुझे इश्क है मुझी से
करूँगा प्यार फिर तुझ को कैसे
दुनिया को दोज़ख समझते
जन्नत बनाऊंगा मैं उसको कैसे………..
(रह्बनियत=साधुत्व हिकायत=कहानी कामिल=पूर्ण गुमान=शक )
Monday, March 2, 2009
जज्बा-ए-कबूलियत-लफ़्ज़ों की सजावट
मेरी इमां-परस्ती कुछ भी नहीं
लफ़्ज़ों की एक सजावट है
मेरे ऊँचे होने की वजह
दूसरों की गिरावट है,
अमन की बातें
किये जा रहा हूँ शब्-ओ-दिन
मेरे अमन की बुनियाद
महज़ आपसी अदावत है,
मेरी तव्स्सुर में
छुपी है जो हरदम
वो कुछ और नहीं
इक शबीह-ए-हिकारत है,
मेरी तमीज
जिसके कायल हो तुम कब से
वो कुछ भी नहीं ए साथी
बस बनावटी एक तमाज़त है,
मेरी नफरत ने ओढ़ी है
चूनर मोहब्बत की
घूँघट ना उठने तक
खूबसूरती का एक भ्रम है
और झूठी सी इक चाहत है,
ऐ मुझ को टूट कर
चाहनेवाले हम-पियाला दोस्त !
मेरी यह पैंदा स़ी रूहानी बातें
और कुछ नहीं
एक मुल्लमा चढ़ी हिकायत है
मैं जानता हूँ मगर कहता नहीं के
मेरे ही वज़ह से
मुकद्दर में मेरे
ना सुकून-ए-जिन्दगानी है
ना ज़बा -ए-सदाकत है
ना ही कोई मुसलसल स़ी
रूहानी राहत है.
(शबीह=चित्र/पिक्चर तमाज़त=गर्मी हिकारत=तिरस्कार
पैंदा=अमर
हिकायत =कहानी
सदाकत=सत्यता
मुसलसल=निरंतर
रूहानी=आत्मिक राहत =सुख-शांति सुकून=मन की शांति)
Sunday, March 1, 2009
जज्बा-ए-कबूलियत : मोल
न जाने
किस धुन में
बेचे जा रहा हूँ
बिन-मोल
गीत
चहकते,
नगमे
महकते,
अफसाने
ख़ुशी के,
सपने
सलोने से…
मजबूरी में
खुश होने की
कम खर्च में,
खरीदे
जा रहे हैं
जिनको
पढनेवाले
बड़ी शिद्दत से,
ज़िन्दगी में
जिनके
ख्वाबों के सिवा
कोई सुकून
जो नहीं....