Tuesday, March 3, 2009

जज्बा-ए-कबूलियत--मेरा इश्क

मेरा इश्क
एक छलावा है
महज़ लेने का इक ज़ज्बा
देने का
एक दिखावा है.

मेरे अल्फाज़ में
तारीफें बसा करती है जो तेरी
वो कुछ नहीं
मेरी खुद-परस्ती की खेती है
सफ़ेद झूठ है मेरा कहना के
सिर्फ तू मेरी चहेती है.

भरोसे और निबाहने की बातें
जो खिलती है लबों पे मेरे
वो एक बनावटी रह्बनियत है
मैं हूँ उड़ता सा एक पंछी
बदलते रहना शब्-ओ-रोज़ रिश्तों को
मेरी बुनियाद है और एक हिकायत है.

कसूर जब भी देखता हूँ
कोई भी मैं तुम्हारा
मुआफी की बातें कर
बहलाता हूँ दिल तुम्हारा
धागा पकड़ कर उसका
जलील करता हूँ
वुजूद-ए-कामिल तुम्हारा.


आज़ाद खयाली की फ़ित्रत
सोचों की पाकीज़ा गहरायी
बस ऐसी ही उम्मीदें
मैं करता रहा हूँ तुझ से;
बातें खुली खुली स़ी
सोचें बड़ी बड़ी स़ी
मेरी जुबाँ ही पर हुआ करती है
कभी शिकवे-ओ-गुमान
कभी तंग-जेहनी
रिश्तों में ज़हर भरती है.

जो तेरा है वो है मेरा
तू गैर नहीं बस है मेरी
तुम्हारी साँसों में बसी
हर इक नफ़स है मेरी
लफ्फाजी कि हद तक ये सब
कहता रहूँगा मैं
खुदगर्ज़ी ० खुद्खायाली में
डूबा रहूँगा मैं.

मेरा इश्क इश्क नहीं
बांधे रखने का एक जरिया है
मेरी मोहब्बत नहीं है मोहब्बत
बस एक नफरतों का उफनता दरिया है.

न मुझे इश्क है मुझी से
करूँगा प्यार फिर तुझ को कैसे
दुनिया को दोज़ख समझते
जन्नत बनाऊंगा मैं उसको कैसे………..

(रह्बनियत=साधुत्व हिकायत=कहानी कामिल=पूर्ण गुमान=शक )

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