Monday, March 9, 2009

जज्बा-ए-कबूलियत : वापसी जमीर की

(यह 'चादर उढा रहा हूँ मैं' नज़्म का अगला 'secene' है...)

# # #
चला गया था वो बेवक्त
छोड़ कर सब कुछ
आखरी सांस लेकर
अनजाने दर्द देकर……

समझदारी थी मेरी कि
निभाई थी मैने रिश्तेदारी
बतौर एक डॉक्टर की थी तीमारदारी
किया था सब कुछ मैने
दिल से, मेहनत से,
इल्म से, वक़्त से, ताल्लुकात से
निकला किये थे अल्फाज़ सभी की जुबाँ से
मिलता है ऐसा अपना रब की ही दुआ से.

आँखों का पानी पोंछ
पहला फ़ोन किया था मैने
और चल निकला था सिलसिला
मेरे इत्तला देने का
और जवाब में मिली तारीफों से
मेरे रफ्ता रफ्ता हीरो बनने का.

मुझे लगने लगा था
ऊँचा हो गया था कद मेरा
माशरे और खानदान में
बढ़ गया था रुतबा मेरा.

पूछी जा रही थी
हर छोटी बड़ी बात मुझ से
कहे जाते रहे थे
बेहतरीन अल्फाज़ मुझ से.

लाश को सँवारने का
हर काम किया था मैने
मैयत्त को कफ़न से
इन्ही हाथों से सजाया था मैने.

मेरे लफ़्ज़ों में मेरे किये का जिक्र
बिन बुलाये मेहमान की तरहा
आये जा रहा था
मेरी हर-एक हरक़त में ‘कर्ता भाव’
समाये जा रहा था
मेरा भरमाया सा… इतराया सा ‘अहम्’
रबर के गुब्बारे की मुआफिक
खुद को फुलाए जा रहा था.

उसका यूँ भरी जवानी में चले जाना
मेरी बहन की मांग का सिंदुर पुछ जाना
बिजलियाँ गिर जाने से कम ना था मुझ को
मगर लगाया गले से जब था उस को
दे रहा मैं दिलासा जब था उसको;
देखें सारे और सराहे मेरे ज़ज्बों को
उस नश्तर स़ी चुभती घड़ी में
किसी कोने में इस बात का एहसास था मुझ को.

बड़े बड़े तब्सिरे किये जा रहा था मैं
मौके को ‘अहम् तुष्टि ’ का सामान
बनाये जा रहा था मैं
एहसास-ए-दर्द के असर से थर्राए जा रहा था मैं
फिर भी दुनियादारी को निभाए जा रहा था मैं.

देते कन्धा ज़नाज़े को चेहरे पे मेरे ‘दर्प’ था
राम नाम सत की हांक में जोशीला मेरा हर हर्फ़ था
मेरी तारीफों का डंका बजता रहा हर तरफ था
गमगीन माहौल में खुद को बनाये रखना मेरा ज़र्फ़ था.

चिता की लकड़ियाँ बढ़ बढ़ कर हाथों से सजाई थी मैने
हर देखनेवाले की नज़र खुद पर यूँ ठहराई थी मैने
उजड़े से उस दयार में अपनी एक अजीब दुनिया बसाई थी मैने
मातमगुसारी की भी सारी रस्में बखूबी निभाई थी मैने.

मातमपुर्सी के दरमियाँ बेमहबा तक़रीर मेरी थी
अखबारात में मेरा नाम हो रोशन वो तहरीर मेरी थी
जार जार रोये जा रहा था दिल मेरा टुकड़े टुकड़े होकर
उस खिजां-ए-गम में दिखावे की बहार मेरी थी।

मुद्दत-ए-मातम में मेरा सलीका-ए-लिबास अनूठा था
मेरी हर बेजा हरक़त ने लोगों की वाह वाही को लूटा था
दौलत और शोहरत को देख मैं हर शै से लामूता था
मेरी सोचों का बयान-ओ-इज़हार मेरी तरहा ही झूठा था.

मसान के बिरागी माहौल में चुप खड़ा था गुमसुम
“मैं कौन हूँ ?” सवाल खुद से कर पाया था मैने
आंसुओं, पछतावे और जागरूकता से पक कर खुद को
अपने ज़मीर ओ रूहानी ज़ज्बों को फिर से बुलाया था मैने।



मायने -

रफ्ता-रफ्ता=धीरे धीरे ,तब्सिरे=टिप्पणियां ,नश्तर=छुरा ज़र्फ़=योग्यता/ capability

मातमपुर्सी = शोक में अफ़सोस जताने मिलना, बेमहबा=बेधड़क/without hesitation

तक़रीर=भाषण, तहरीर=लिखावट, खिजां=पतझड़, शै=ऑब्जेक्ट /वस्तु, बहार=बसंत

सलीका-ए-लिबास=ड्रेसिंग सैंस, ज़ज्बा=भावना, मुद्दत=अवधि/पीरियड, मसान=शमशान, ज़मीर=अन्तः-करण, रूहानी=आत्मिक/अध्यात्मिक,
मातमगुसारी =शोक जाहिर करना


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