Friday, March 13, 2009

इस पार उस पार - ना भरमाओ (दीवानी सीरीज)

मेरी एक स्टुडेंट बहुत ही भावुक किस्म की थी. कल्पनाओं में गोते लगाना उसका स्वभाव था. मनोविज्ञान और प्रबंधन की वह विद्यार्थी थी, लेकिन परा-मनोविज्ञान में भी उसकी रूचि थी. लगातार कुछ ना कुछ 'इहलोक-परलोक' के बारे में पढ़ती रहती थी और यह अध्ययन उसे और अधिक कल्पनाशील बनाता था. ’दीवानी’ के उपनाम से प्रसिद्ध इस बुद्धिशाली ‘डेम्सेल' ने एक बार 'Trutz Hardo' की पुस्तक 'Reincarnation' मुझ से 'borrow' की थी और जब लौटाई तो उसमें बहुत सुन्दर अक्षरों में लिखी एक कविता थी. यह 'दीवानी' की अपनी रचना थी या उसका कोई संकलन मुझे नहीं मालूम, मगर कविता बहुत प्यारी थी. उसका प्रत्युतर भी मैने किसी तरहा उस तक पहुँचाया था एक कविता के ही रूप में.

दोनों कवितायेँ आप से 'शेयर' कर रहा हूँ।

इस पार कभी उस पार कभी : संदेशा दीवानी का

# # #
हम बिछुड़े मिले हज़ार बार
इस पार कभी उस पार कभी…

हम कभी अश्रु बन
आँखों से टूट पड़े
हम कभी गीत बन
साँसों से फूट पड़े
हम टूटे जुड़े हज़ार बार
इस पार कभी उस पार कभी…

तम के पथ पर तुम
दीप जला धर गए कभी,
किरणों की गलियों में
काजल भर गए कभी
हम जले बुझे प्रिय बार बार
इस पार कभी उस पर कभी…

फूलों की टोली में
मुस्काते कभी मिले,
शूलों की बाँहों में
अकुलाते कभी मिले
हम खिले झरे प्रिय बार बार
इस पार कभी उस पार कभी…

तुम बनकर स्वप्न थके
सुधि बनकर चले साथ
धड़कन बन जीवन भर,
तुम बंधे रहे गात,
हम रुके चले प्रिय बार बार
इस पार कभी उस पार कभी…

तुम पास रहे तन के
तब दूर लगे मन से,
जब पास हुए मन से
तब दूर लगे तन से,
हम बिछड़े मिले हज़ार बार
इस पार कभी उस पार कभी…

(यह रचना मेरी नहीं है : दीवानी ही जाने किसकी है।)

स्वयं को ना भरमाओ (मेरा प्रत्युत्तर)

# # #
मेरा मौन इस पार खड़ा
कुछ भी तुमको नहीं दे सकता
कहता बारम्बार यही
कोई आस ना लगाओ
स्वयं को ना भरमाओ…

मैं पिपसव्यथित
रीता गागर
चुपचाप पड़ा जो कोने में,
उसे ना सताओ
स्वयं को ना भरमाओ…

मैं एक भर्जित बीज
अंकुरण नितान्त असंभव
सुशीतल नीर संग्रह,
उस पर ना गंवाओ
स्वयं को ना भरमाओ…

मैं एक उत्पतित पौधा
मूल संक्रमण से जर्जर
शस्य-श्यामला धरा पर,
उसे ना लगाओ
स्वयं को ना भरमाओ…

मैं एक भटका पथिक
गंतव्य जिसका विस्मृत
है जो समूह से तिरस्कृत,
अंग ना उसे लगाओ
स्वयं को ना भरमाओ …


(भर्जित=भुना हुआ, उत्पतित=उखाड़ा हुआ)




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