उसकी वहां की 'सृष्टि' (शादी) के बिखरने के बाद उसने शायद खुद को माजी में डुबोया था, और गुज़रे वक़्त को फिर से महसूस किया था…….एक दफा मेरे इन्बोक्स में उसका यह मेल था:
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# # #
एक एक
पल में,
'प' तुम्हारा था
और
‘ल’ था मेरा,
अब
कहाँ से लाऊं
मेरे वाक्य के
शब्द,
अब
किस से बाँधू
मैं समय को ?
खंडित दृष्टि (मेरा प्रत्युत्तर)
पल में,
'प' तुम्हारा था
और
‘ल’ था मेरा,
अब
कहाँ से लाऊं
मेरे वाक्य के
शब्द,
अब
किस से बाँधू
मैं समय को ?
खंडित दृष्टि (मेरा प्रत्युत्तर)
उसके और मेरे बीच एक बेनाम रिश्ता जिये जा रहा था, अनकहा सा. मैंने भी उसे लिखा था………क्यों ? नहीं मालूम.
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# # #
प्रिये !
तुम ने तो
हर शै को
बस बांटा था,
और
आज
समय की
अतिसूक्ष्म इकाई
पल को भी
बाँट रही हो तुम,
तुझ में
और
मुझ में.....
समर्पण भी
तुम्हारा
था खंडित
और
स्वीकारना
मुझ जैसे को भी
था अहम् मंडित...
इसीलिए
इस खंडित
दृष्टि ने
बनायीं थी
एक
खंडित सृष्टि ,
काश ! अपनाती तू
समग्रता
सहज स्वीकार्यता …….
'तुम' 'मैं' बन जाते
'हम''
बन जाता
'तेरा' 'मेरा'
हमारा,
ना होती ज़रुरत,
ए मेरे बिछुड़े दोस्त !
समय को बाँटने की
वक़्त को बाँधने की…………
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प्रिये !
तुम ने तो
हर शै को
बस बांटा था,
और
आज
समय की
अतिसूक्ष्म इकाई
पल को भी
बाँट रही हो तुम,
तुझ में
और
मुझ में.....
समर्पण भी
तुम्हारा
था खंडित
और
स्वीकारना
मुझ जैसे को भी
था अहम् मंडित...
इसीलिए
इस खंडित
दृष्टि ने
बनायीं थी
एक
खंडित सृष्टि ,
काश ! अपनाती तू
समग्रता
सहज स्वीकार्यता …….
'तुम' 'मैं' बन जाते
'हम''
बन जाता
'तेरा' 'मेरा'
हमारा,
ना होती ज़रुरत,
ए मेरे बिछुड़े दोस्त !
समय को बाँटने की
वक़्त को बाँधने की…………
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