माना कि सफ़र है कठिन और मंजिल भी दूर है
मेरी आँखों में हर लम्हे ज़िन्दगी का सुरूर है......
जश्न मनाता हूँ चलते हुए टेढ़ी-मेढ़ी राहों पर
हर मकाम के वजूद में मेरी मंजिल का जो नूर है.
हमसफ़र को मनाये कितना के मायूसी होती नहीं अच्छी
मगर यारों वो है कि उसूल-ओ-सोचों से मजबूर है.
हौसला रखतें है इन राहों पे कदम बढ़ानेवाले
माशरे के हर शै को क्यों ना खुद पे ही गुरूर है.
ठोकरें खा कर संभल जाना ही फ़ित्रत है हमारी
अहल-ए-मसाफ़त मासूम स़ी नजाकत से मजबूर है.
(अहल=लोर्ड/मास्टर मसाफ़त=सफ़र)
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