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क्यों
कर रही हो तबाह
वज़ूद अपना
जल जल कर
ए बाती !
देखो मुझे,
बैठा हूँ
और
कायम हूँ
सुकून-औ -चैन से
पनाह उसी की में,
जिस के लिए
जलती हो तुम
लिए मकसद
मिटाने का मुझ को...
बेवफा दीया
भरता है
आगोश खुद के में
अपने हमनवा
तेल को,
डूब कर जिसमें
करती हो तुम
कुर्बान खुद को
और
होता है नाम
दीये का.....
कहते हैं सब,
लूटा रहा है दीया
रोशनी,
और
जलाती हो तुम
जिस्म खुद का...
जला देती हो
जल जल कर तुम
दीये के उस
हमनफस को
और तब
होती हो तूडी-मूडी सी
बुझी-बुझी सी तुम
और बस खाली सा दीया,
होता हूँ छाया सब तरफ
मै सिर्फ़ मै
मैं घनघोर अंधेरा………
ए कोमलांगी
गौरवर्णा
इठलाती
बल खाती
बाती !
पूछता हूँ आज तुझसे
करती हो किस-से मोहब्बत
दीये से,तेल से या मुझ से………..?
फ़ना करती हो
किस के लिए वज़ूद अपना…….?
क्या है तुम्हारी फ़ितरत……?
क्या है फलसफा तेरे रिश्तों का….?
कैसी है तेरी ज़फाएँ…….?
कैसी है तेरी वफायें …….?
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