Sunday, March 29, 2009

पुकारा था पहाड़ को ज़मीन ने....

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करते हो क्यों हाय-तौबा
छूने आसमान को,
लाख मुश्किलें उठा कर भी
छू नहीं सकता
एक बौना हसीन चाँद को,
समझाया था अपना बन
उस पत्थर -दिल की हम-नशीन ने
पुकारा था पहाड़ को ज़मीन ने…..

जब गिरेगी बिजलियाँ कड़ कड़ा कर
गिर पड़ेंगे सींग तुम्हारे टूट.कर,
हिस्से तुम्हारे बदन के
मुँह मोड़ेंगे तुझसे रूठ कर,
माना के ज़ज़्बा-ए-गुरूर तुम्हारा है आज़
झुकेगी गर्दन शर्म से तुम्हारी कल मगर
कह डाला था उस ज़मीन पुर-यकीन ने
पुकारा था पहाड़ को ज़मीन ने……

काटता है च्यूंटी तुम्हारी
सूरज हर रोज़ चमक कर
छेदती है तुझे बर्फ़ीली हवाएँ
और तपती आँधियाँ बहक कर
छोड़ दो नशा-ए-गुरूर तुम
राज़-ए-हकीकत समझ कर
कही थी यह बात एक जाहिल से एक ज़हीन ने
पुकारा था पहाड़ को ज़मीन ने…….

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