Monday, March 9, 2009

जज्बा-ए-कबूलियत---एक सवाल खुद से

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सोचता हूँ
मानता हूँ
और
कहता हूँ कि
अहसान फरामोश है वो …….

वो जिसको मैने
उठाकर जमीं से
ऊँचाइयों तक पहुँचाया था
जिसे चलना और दौड़ना सिखाया था
जिसे बोलना और चुप रहना सिखाया था
जिसे हँसना और रोना सिखाया था
जिसे सिर उठाकर जहां में जीना सिखाया था....

वह शख्स जिसे
चार अल्फाज़ के हिज्जे तक
आते नहीं थे लिखने
आज 'इकोनोमिक टाईम्स' पढता है
इंग्लिश न्यूज़ सुनता है
बार में स्टीवर्ड को
अंग्रेजी में ‘ड्रिंक्स’ और ‘स्नेक्स ’ का
आर्डर देता है...

जो कप से सौसर में डाल कर चाय पिया करता था
आज छुरी काँटों के सहारे खाता है
'ब्रांडेड अटायर' पहनता है
लम्बी गाड़ी में चढ़ता है
ऐ. सी. के साथ सोता है
होम थियेटर में फ़िल्में देखता है
हफ्ते में एक दिन पार्टी ‘फेंकता’ है...

माशरे की हर मिल्लत में तक़रीर करता है
हर समाजी मंसूबे में चंदा भरता है
अपने बच्चों को डोनेशन(घूस) दे दे कर
नामी गिरामी स्कूलों में पढाता है
चिकनी चुपड़ी बातों से
अपनी इज्ज़त और रुतबा बढाता है.....

सलीके किसने सिखाये थे उसको ?
मैने सिर्फ मैने,
उसे एक सेमी-लिटरेट मानव से
लिटरेट एंड वेल मैनर्ड महा-मानव
बनाया था किसने……किसने ?
मैने सिर्फ मैने………..
इस ऐश-ओ-आराम की ज़िन्दगी का हर सामान
मुहैय्या उसको कराया था किस ने ?
मैने सिर्फ मैने………

इस सिलसिला-ए-तामीर में
वह जुदा नहीं मेरा एक साया था
हर सागर लबों पे लगाने से पहिले मैने
उसके छलकते हुए जाम से टकराया था
ज़िन्दगी के हर सफे पर लिखा
सबक उसे सिखाया था
धंधे और जीने का हर गुर उसे सिखाया था
उसकी उदासियों में उदास होकर
उसे तह-ए-दिल से हंसाया था
उसकी हर मुश्किल को अपनी मुश्किल समझ
मदद का हाथ हरदम बढाया था

मेरी हर चीज को उसका भी माना था मैने
उसके हर दुःख दर्द को अपना सा जाना था मैने
मेरे हर सोच में उसकी रजामंदी थी
मेरे हर ठहाके में शामिल उसकी हंसी थी....

मेरे हर गुस्से को सहता था वह अपना बनकर
मेरी नज़रों को समझता था मेरा सपना बनकर
उस-से करीब कोई नहीं लगता था मुझको
अक्स खुद को आइना समझता था मैं उसको
खुद से ज्यादा भरोसा था उसपर मुझ को
उसकी शागिर्दगी-ओ-दोस्ती पे गुरूर था मुझ को
कहीं पर भी कभी जुदा ना देखा जाता था हम को
दो जिस्म एक जान-ओ-रूह कहा जाता था हम को....

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