Monday, March 2, 2009

जज्बा-ए-कबूलियत-लफ़्ज़ों की सजावट

मेरी इमां-परस्ती कुछ भी नहीं
लफ़्ज़ों की एक सजावट है
मेरे ऊँचे होने की वजह
दूसरों की गिरावट है,
अमन की बातें
किये जा रहा हूँ शब्--दिन
मेरे अमन की बुनियाद
महज़ आपसी अदावत है,
मेरी तव्स्सुर में
छुपी है जो हरदम
वो कुछ और नहीं
इक शबीह--हिकारत है,
मेरी तमीज
जिसके कायल हो तुम कब से
वो कुछ भी नहीं साथी
बस बनावटी एक तमाज़त है,
मेरी नफरत ने ओढ़ी है
चूनर मोहब्बत की
घूँघट ना उठने तक
खूबसूरती का एक भ्रम है
और झूठी सी इक चाहत है,
मुझ को टूट कर
चाहनेवाले हम-पियाला दोस्त !
मेरी यह पैंदा स़ी रूहानी बातें
और कुछ नहीं
एक मुल्लमा चढ़ी हिकायत है
मैं जानता हूँ मगर कहता नहीं के
मेरे ही वज़ह से
मुकद्दर में मेरे
ना सुकून--जिन्दगानी है
ना ज़बा --सदाकत है
ना ही कोई मुसलसल स़ी
रूहानी राहत है.
(शबीह=चित्र/पिक्चर तमाज़त=गर्मी हिकारत=तिरस्कार

पैंदा=अमर

हिकायत =कहानी

सदाकत=सत्यता

मुसलसल=निरंतर
रूहानी=आत्मिक राहत =सुख-शांति सुकून=मन की शांति)

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