Tuesday, March 10, 2009

जज्बा-ए-कबूलियत ...क्यूँ हुआ था ऐसा..

इस नज़्म का पहला हिस्सा 'ज़ज्बा-ए-कबूलियत : एक सवाल खुद से' आप पढ़ ही चुके हैं. उस नज़्म के आखिर में एक सवाल था. यह नज़्म उसका जवाब मुहैया कराने की एक कोशिश है.ऐसे तजुर्बे हम सब की ज़िन्दगी में नसीब होते हैं, एक खास नज़रिए से उसे देखने की कोशिश की है इस नज़्म ने, और यह नजरिया इन्सान को सुकूं की जानिब ले जाता है, क्योंकि 'प्रतिशोध' की भावना सेल्फ रीयलाईसेशन के बाद धीरे धीरे मंद हो जाती है और एक ऐसा मोड भी आता है जब बदला लेने का ज़ज्बा बिलकुल ख़त्म हो जाता है. साथ ही रिश्तों को हकीकत की नज़रों से देखने परखने के लिए भी ऐसी सोचें इंस्पायर करती है.

उम्मीद है कि आप मेरी इस लम्बी नज़्म को बर्दाश्त करेंगे. शुक्रिया !

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मेरी खुशनसीबी थी उसका मिलना मुझ से
शायद छूट सकता था ज़िन्दगी को जानना मुझ से

दतात्रेय के चौंसठ गुरुओं के मानिंद
वह गुरु था मेरा
उस-से बिछड़ने पर झांकना खुद में
हुआ शुरू था मेरा.

मेरा सलाम है :
उसके दिए हुए बे-इन्तहा दर्द को
मैंने भरी थी उस आह-ए-सर्द को
माजी पे पड़ी वक़्त की गर्द को
दोस्ती के फूलों के रंग ज़र्द को
दुनियादारी के उस अज़ीम नावर्द को.

बचपन से ही में प्यार से महरूम था
कहूँ की मैं हालात का मजलूम था
अपनी ही हीनता के हाथों में महकूम था
मेरा जीवन बस एक हस्ती-ए-मौहूम था

बहुत कुछ दे कर थोड़ा पा जाना चाहता था मैं
किसी की एक मुस्कान के लिए खुदको लुटाता था मैं
अपने खयालों में उजाड़ों को बसाता था मैं
एक भला इन्सान होने के भ्रम में जिये जाता था मैं.

मेरा ज़ज्बाती होना मेरी कमजोरी थी
हावी मुझ पर औरों की सीनाजोरी थी
तन्हा रह कर जहां में अधूरा होता था मैं.
दूसरों का पाकर साथ पूरा होता था मैं

पढ़ डाले थे बहोत कुछ फलसफे मैंने
धर्मग्रंथों के अनगिनित सफे मैंने
आदर्शवाद कूट कूट कर भरा था मुझमें
दुनियादारी के नुस्खों का शउर नहीं था मुझमे

मैंने बे-शर्त सौंपा था खुदको
थोड़े से प्यार और मोहब्बत के खातिर
ऊँचा उठनेवाले के ज़ज्बे थे साफ़
नज़रें थी उसकी चालाक और शातिर.

उसने वह लिया मुझ से जो उसके मुआफिक था
फजूल उसकी नज़रों में मेरा तौफीक था
जरिया था मैं और एक सीढ़ी ऊँचा जाने के लिए
इस्तेमाल हुआ था मेरा मंजिल तक पहुँचाने के लिए.

आँखे होते हुए भी मैं एक अँधा था
मज़बूत शख्सियत के परदे में लिप्त
मैं एक कमज़ोर ज़ज्बाती बन्दा था और
उसकी नज़रों में दोस्ती महज़ एक धंधा था.

वाह अपने मुद्दे में बहोत सावधान था
मुझे उलझनों में रखना उसका अवदान था
दुनिया के सामने मैं एक बड़ा निशाँ था
इस सहारे पूरा होता उसका हर अरमान था.

मेरी सोचें मेरे आदर्श बस कहने की बातें थी
उसकी नज़रों में बस आनेवाली सुहानी रातें थी
दौलत और ताकत सबसे बढ़कर उसकी चहेती थी
शराफत , सदाकत, तसव्वुफ़ बस मेरी ही खेती थी.

रिश्तों का यह सौदा यारब बराबर का था
तराजू के पलड़ों में सामान बराबर का था
एक तरफ बोझा अरमान-ए- रहजन का था
दूजे पलड़े में सामान उसूल-ए-रहबर का था.

गर कोसूं उसको तो यह मेरी नादानी है
हर बात से जुडी हुई मेरी भी कहानी है
पहचान ना कर पाया था शायद मैं उसकी
हर हामी मेरे साथ रहा करती थी जिस की.

अपने खालीपन को ज़हर से भरने का नतीजा है
खुद की गफलतों का यह सब एक खाम्याज़ा है
दूसरों की नज़रों में ऊँचा बने रहने की
कीमत चुकाने का ज़ज्बा भी तो नासज़ा है.

बसों में लिखी यह हिदायत क्या खूब है
मुसाफिर अपने असबाब की खुद हिफाज़त करे
सोया मुसाफिर लुट जाये अपनी ही गफलत से
मकसूम अपने की किस से वो शिकायत करे.
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मायने

(नावर्द=पथिक ,अज़ीम=महान ,ज़र्द=पीला ,महरूम=वंचित, मजलूम=अत्याचार पीड़ित ,महकूम=दास, गुलाम हस्ती-ए-मौहूम=भ्रमात्मक जीवन ,ज़ज्बाती=भावुक, तौफीक=ईश्वरीय सामर्थ्य/डिवाइन पावर शख्सियत=व्यक्तितव ,सदाकत=सच्चाई ,तसव्वुफ़=अध्यात्म ,रहजन=लुटेरा ,रहबर=मार्गदर्शक ,खाम्याज़ा =प्रतिफल, नासज़ा=अनुचित ,मकसूम=प्रारब्ध/डेस्टिनी /फेट .)


नोट:

कई जगह पर मैंने हिंदी/संस्कृत शब्दों का प्रयोग किया है जैसे आदर्शवाद, अवदान आदि क्योंकि मुझे माकूल अल्फाज़ उर्दू/फारसी के मिल नहीं पाए थे, पढ़नेवालों से गुज़ारिश है की मेरी इसमें मदद करें, इनके समानार्थक शब्द बता कर.

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