Wednesday, March 4, 2009

ज़ज्बा-ए-कबूलियत : चद्दर ओढा रहा था मैं...

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मैं एक ना था
मुझ में उस घड़ी
जिए जा रहे थे
इन्सां कई....

एक था सादा दिल
डरा हुआ था एक
एक था मरा हुआ
था अधूरा सा एक....

मैं खड़ा था करीब
उस वक़्त
आईसीयू के बिस्तर के,
पेशे से डॉक्टर था इसलिए ?
नहीं, तब मैं एक डॉक्टर नहीं
उसका सबसे नजदीकी रिश्तेदार था,
रिश्तेदार ही नहीं उसका हमदर्द था,
वो मेरी बहन का खाविंद ही नहीं
महबूब भी था,
बने थे दोनों
एक दूजे के लिए,
ले रहा था वह
साँसे आखरी,
मैं भूल कर अपनी तालीम मेडिकल की
अपनी बहन के दुखों को मैं देख रहा था,
मेरे अन्दर बैठा एक डरा, मरा
अधूरा इन्सान
ना जाने क्या क्या सोच रहा था……..

सफ़ेद लिबास में लिपटी
वह सूजी स़ी आँखों वाली औरत,
मेरी इकलोती बहन
ना जवान ना ही अधेड़,
पूछ रही थी मुझ से
क्या हुआ तेरे वादों का
क्या हुआ तुम्हारी और
तुम्हारे जैसों की डिग्रियों का
नहीं छीन सके ना तुम उसको
काल चक्र के रक्त सने दशनों से…………

बिस्तर पर लेटे मानव का
थम गया था सांस आखरी
बिना किसी का एहसान लिए
चल दिया था वह,
ना ली थी उसने लीवर
जो देनी चाही थी मेरी बहन ने,
ना ही किडनी
जो पेश की थी उसकी बहन ने,
समझता था ज्यादा मुझ से
सच्चाई मेडिकल साइंस की
या इंसानी ज़िन्दगी की
वह इंसान जो सोया था मौन,
तभी तो नहीं चाही थी उसने देनी
बीवी और बहन को
तकलीफ भरी अधूरी ज़िन्दगी,
बिछुड़ गया था वह खुद्दार
करके बौना हम सब को……….

आँखों से झरते अश्क
बहा ले गए थे उन हिम्मत भरी बातों को
जो ऐसे मौकों पर कहा करता था मैं,
जार जार रोते मेरे दीद
बना रहे थे गुनाहगार मुझ को,
शायद कोई गफलत मेरे से
कोई कोताही हुई थी मुझ से,
जो बना गई थी बेवा बेवक्त
मेरी बहन को
बहार आने से पहिले चली आई थी
खिजा चमन को....

क्या होगा इसके बाद
उसका और उसके बच्चे का
जिसने अभी पूरे किये थे
चन्द साल स्कूल के
क्या होगा उन अरमानों का
सजाये और संजोये थे
उसके लिए
मिल कर दोनों ने..
करोड़ों की दौलत लग रही थी
आज मिट्टी का धेला स़ी
मुझे लगा मेरा इंसानी नस्ल का इल्म अधूरा था
विज्ञान ज़िन्दगी की अनाटोमी का कोई दूसरा था
जुड़ गए थे हाथ मेरे वंदन को
झुक गया था मैं होने शरणागत प्रभु की
सोच लिए थे मैने अपने फ़र्ज़ के मंसूबे
गीली आँखों से उसके चेहरे पर
चद्दर औढ़ा रहा था मैं……..

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