Tuesday, January 12, 2010

अंतिम किश्त......


एयर होस्टेस की आवाज़ ने मुझे जगा दिया था.....हमारा विमान अब मुंबई उतारने के क्रम में था....मैंने अपने पास की सीट को देखा खाली थी......मैंने पूछा था एयर होस्टेस से कि जो यहाँ बैठी थी वह कहाँ है ? उसने कहा था सर, पूरी यात्रा के दौरान आप गहरी नींद में सो रहे थे, यहाँ तो कोई नहीं था.....तो क्या मैंने सपना देखा था ?
मुझे अपने में एक नयी उर्जा का प्रादुर्भाव अनुभव हो रहा था. मुझे लग रहा था कि मेरी प्राण प्रतिष्ठा हो गयी है, मैं एक मुर्दा था जिसमें जान फूंक दी गयी है. किसने किया यह ? शिवांगी उर्फ़ शुभांगी ने जिसको मैंने स्वप्न में अपने साथ पाया था और ना जाने कितनी बातें की थी उस से ? शुभा के साथ की यादों ने जो शुभांगी से बातचीत के दौरान सुसुप्त मन में जाग रही थी ? अपने आप के शोधन से जिसका निमित सपने में आई वाह युवती बनी थी ? मुझे लगा जो भी हुआ था स्वयम से स्वयम के वार्तालाप का हिस्सा था. हम बाहर सब से बातें करते हैं, झूठा-सच्चा शेयर करते हैं, खुद से भी आधा अधूरा कहते रहते हैं---कभी कभी तो खुद को भी डायलोग्स के सहारे मेनेज करते हैं----मगर जागरूक हो कर खुद खुद से ईमानदारी भरा संवाद कभी भी नहीं स्थापित करते. प्रकृति अथवा कोई दैवी शक्ति कभी कभी ऐसे चमत्कार घटा देती है, खुद से खुद का सामना करा देती है....मन की गांठे खुल जाती है, भ्रम के बदल छाँट जाते हैं और हम उर्जावान हो जाते हैं. मुझे आज ऐसा ही सौभाग्य मिला था....मैं अस्तित्व के प्रति कृतज्ञ था.....यह कृतज्ञता मेरे चेहरे पर मुस्कान और सुकून बन कर दिख रही थी, मुझे लग रहा था मैं कोई ३० साल का नौजवान हूँ........मन-चित्त-आत्मा के इन रहस्यों कि परतें कुछ हद तक मनोविज्ञान ने खोली है.....फ्रायड और जुंग ने काफी कुछ शोध की थी और इस पर लिखा था. हाँ हमारे प्राचीन ऋषियों ने, बौद्ध और जैन परंपराओं ने, सूफियों ने इस पर बहुत काम किया था जो मैंने यदा कदा पढ़ा था, यद्यपि शुभा का अध्ययन इस बाबत बहुत गहरा था, और उसके चर्चा के विषय अधिकाशतः ये ही हुआ करते थे.- अध्यात्म, मानव मनोविज्ञान और परामनोविज्ञान. मैंने 'कनकलुड' किया था कि ये शुभा के मेरे सुसुप्त मन को दिए गए सुझाव और उसके अपने स्पंदन थे जो अन्तरिक्ष और वायुमंडल में विद्यमान थे/है. मुझे यह महसूस हो रहा था कि शुभा कहीं आसपास है.
कस्टम की औपचारिकतायें पूरी कर मैं मुंबई के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से बाहर निकला तो मेरी आँखें आश्चर्य से भर गयी. शुभा खड़ी थी, हाथों में वायलेट रंग के ओर्किड्स लिए, अपनी गुलाबी मुस्कान के साथ. उसने डेनिम की नीली जींस और सफ़ेद टीशर्ट पहने हुआ था....चेहरे पर एक कान्ति विराजमान थी, और उसने जो ग्लास्सेस पहने हुए थे वे ठीक वैसे ही थे जैसे कि मैंने शुभांगी के चेहरे पर देखे थे....ऐसा लग रहा था शुभांगी सामने हो. शुभा ने बाहें फैला कर मुझे अपने आगोश में ले लिया था....मैं उसका स्पर्श पाकर अपने को उत्सव में पा रहा था. वक़्त मानो थम गया था, मौन बहुत कुछ कह रहा था....
"चलो ! हम थोड़ा फ्रेश हो लेते हैं, फिर 'डोमेस्टिक' चलेंगे....जहां से हम जयपुर कि फ्लाईट लेंगे."
शुभा कह रही थी. उसका यहाँ होना और कहना "हम" जयपुर की फ्लाईट लेंगे...अच्छा लग रहा था किन्तु बहुत सी जिज्ञासाएं मुझ में उमड़ रही थी. स्कोडा के बूट में सूटकेस और बैग को रखा हम ने. शुभा स्टीयरिंग पर थी और मैं उसके पास.....ड्राईवर को कह दिया था कि ठीक समय केब से डोमेस्टिक एअरपोर्ट चला जाये और वहां हमारी प्रतीक्षा करे.
"कैसी हो तुम", "कैसे हो तुम" वाक्य दोनों ही नहीं कह पा रहे थे शायद.
"तुम तो बहुत बड़े हो गए हो अजय, सर को देख कर लगता है बदली में चाँद चमकने लगा है....और काले में यह सफ़ेद बाल लग रहा है सिल्वर लाईनिंग हो.....जी करता है कहूँ 'बुड्ढा !' या "बड़े मियां दीवाने"....मैंने पाया यह कहते हुए उसके चेहरे पर एक शैतानी खिल गयी थी.
" और तुम ? तुम तो लगता है च्यवनप्राश खाकर हृष्ट पुष्ट हो गयी हो....अभी भी जोश-ए-जवानी उज़ आउट हो रहा है हर जर्रे से.....अरे तुम को मैंने देखा था फ्लाईट में." मैंने कहा था.
"सनक गए हो.....मैं और फ्लाईट में......झूठे रोमांटिक डायलोग बोलने की आदत.... लगता है अब तक नहीं गयी....इतना घिस गए हो तब भी." शुभा हावी हो रही थी.
"फ्लाईट की बात भी बताऊंगा थियरी और प्रेक्टिकल दोनों में, मगर यह बताओ तुम्हारा अचानक यहाँ पुनर्जन्म कैसे हो गया ?" मैंने अपने घुमड़ते सवाल को दाग दिया था और उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा था.
उसने गाड़ी को होटल के पोर्च में रोका, बेल बॉय को चाभी पकडाई और हम लोग लोबी में एलेवेटर के सामने थे. शुभा ने वहां कमरा बुक किया हुआ था.....

"एयर इंडिया की फ्लायिट्स आज नहीं उड़ रही है क्योंकि पायलोट्स का एजिटेसन चल रहा था, हमने 'जेट' की फ्लाईट जो पांच घंटे बाद उडेगी, उसमें सीट्स बुक कर दी है." कह रही थी वो, "फ्रेश हो जाओ, ब्रेकफास्ट ले लेते हैं.....कुछ देर आराम के बाद एअरपोर्ट चले चलेंगे."
कोई पंद्रह मिनट में मैं एक दम तरोताजा हो कर बाथ रूम से बाहर आया था. लगता था शुभा स्नान कर के आई थी. ब्लेक चाय और बिस्किट हमारा इन्तेज़ार कर रहे थे. शुभा अब तक नहीं भूली थी कि मेरी सुबह की शुरुआत काली चाय से होती है. हाँ उसकी सुबह सफ़ेद दूध से शुरू होती थी ...

"मैं यहाँ TISS में पढाती हूँ ह्यूमन रेसौर्सेज मैनेजमेंट एंड डेवलपमेंट, जगत को पहले दिन जब क्लास में देखा तो तुम्हारे ख़याल और ज्यादा उमड़ने लगे.....जगत मेरा बेटा और दोस्त बन गया है....मेरे से उसकी शेयरिंग 'वन टू वन' है.उसी से जीसा की गंभीर हालत और तुम्हारे आने का प्रोग्राम मुझे मालूम हुआ." शुभा ने संक्षेप में सब कुछ कह दिया था. "और हाँ, मैं अब तक सिंगल हूँ, खुश हूँ."

चाय और दूध के साथ बेतरतीब बहुत बातें हुई.....जिनमें ज्यादातर बातें हम दोनों के फॅमिली मेम्बर्स और जगत के इर्द गिर्द थी. उसका सिंगल स्टेट्स जान कर मैं खुश हो रहा था.....अवचेतन में उम्मीदों की शम्माएं जलने लगी थी......जीसा के बीमार होने के सोच दोयम स्थान ले चुके थे.....शुभा का नज़दीक होना मेरे लिए मानो दुनिया की सब से बड़ी ख़ुशी था. सुबह की ताज़गी, एकांत और तन-मन-आत्मा के स्पंदन उथल पुथल मचा रहे थे. दिल कुछ कह रहा था, मगर दिमाग कह रहा था....ऐसा सोचना उचित नहीं....तेरा बाप मरण शैय्या पर है, तुम उनके आखरी दर्शनों के लिए सात समन्दर पार से आये हो और अपने मन को ऐसे विकारग्रस्त कर रहे हो, अनैतिक है यह.
शुभा ने जाने मेरा मन पढ़ लिया हो, जो अपने आप में एक चमत्कार था. वह कह रही थी, "अजय, तुम्हे याद है हम लोग गांधीजी की आत्म कथा पर चर्चा करते थे, जिसमें उन्होंने बहुत इमानदारी के साथ खुल कर लिखा है, अपने पिता की बीमारी और उनके अंतिम दिनों के बारे में, उनके मन में आने वाली सम्भोग इच्छा के विषय में और पिता की मौत के समय उनके पिता के पास ना हो कर कस्तूरबा के साथ बिस्तर में होने के बारे में.....गाँधी जैसा सत्य को समर्पित व्यक्ति ही यह बातें सब से शेयर कर सका था......हो सकता है कुछ मायनों में उनके विचार परम्परावादी थे किन्तु वह शख्स कितना डायनेमिक था..... वह हिपोक्रिट नहीं था जैसे कि तुम.....तुम ने हर मौके पर अपनी हर इच्छा का दमन किया है जिसके कारण तुम अपराध/पाप बोध से भर गए हो.....ये अंतर के कांटे तुम्हे एक मनुष्य की तरह जीने नहीं दे रहे हैं......तुम ने खुद को एक ऐसा स्टफ्ड पुतला बना दिया है जिसमें रुई कि जगह थोथे आदर्श, अधूरी मान्यताएं और गिल्ट भरा है.....तुम्हे खुद ही अपने सवालों के जवाब नहीं मालूम.....इंसान या तो जी सकता है या हर तरह से मशीन कि तरह सुसंगत (consistent) हो सकता है." शुभा ने जारी रखा था कहना, " इस पल तुम सोच कुछ और रहे हो और मुझ से डाक्टर्स, बीमारियों, तुम्हारे खानदान के गौरव, भारत में उदारीकरण के बाद से आये परिवर्तनों की गडम-गड बातें किये जा रहे हो.....कभी मेरे रूप लावण्या की दबी जुबाँ में प्रशंसा कर रहे हो, कभी मेरी मेधा और ज्ञान का बखान कर रहे हो.....या.... जगत के लिए जो किया-- तुम्हारे लिए अपने प्रेम को एक्सप्रेस करने के लिए किया-अपनी ख़ुशी के लिए किया-जगत को खुश देख कर खुश होने के लिए किया--उन सब को मेरे एहसान समझते हुए शुक्रिया अदा कर रहे हो."
तुम्हारे सामने वो है जिसने तुम्हे दिल-ओ-दिमाग की गहराइयों से प्रेम किया......तन्हाई है.....हम और तुम हैं .....मन में उमड़ते अरमान है और तुम खुद को भगा ले जा रहे हो...........अब तो खुद को इस 'सेल' से निकालो...."

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