विमान कब रनवे पर दौड़ा, कब उड़ान भरी मुझे कुछ भी होश नहीं था. मैं तो मानो खुद से खुद की एक ना ख़त्म होनेवाली बातचीत में गुम था. राजस्थान से पेरिस आने से लेकर आज तक मानो जो ज़िन्दगी मैंने जी वह मेरी नहीं थी.....जो शख्स इस अरसे में जिया वह कुंवर अजीत सिंह नहीं कोई और था. खुद के जमीर को ना जीने से इंसान कैसा हो जाता है....उसकी मिसाल मैं था जो इस दौरान बस साँसे ले रहा था, खा रहा था, पी रहा था, जग रहा था, सो रहा था..मगर एक मशीन की तरहा. शायद मैं खुद ही खुद की नज़रों से गिर गया था. मेरे सारे रिश्ते यांत्रिक थे. मैंने दिल के एहसासों को नहीं जिया था, मैंने तो बस सब कुछ 'मेनेज' किया था. आज मैं उन २०० से ज्यादा यात्रियों के बीच..... धरती और आसमान के बीच खुद को अकेला...... नितांत अकेला पा रहा था. अकेलापन शायद भौतिक नहीं होता, यह तो एक एहसास होता है. भीड़ में भी हम अकेले पा सकते हैं खुद को और अकेले होने पर भी हमें अपने अंतर की भीड़ अकेले नहीं होने देती. कुछ लम्हे शायद ऐसे भी गुजरे तब मैं कुछ नहीं सोच रहा था.....शायद होश गँवा बैठा था......अचानक मेरी नज़र अपने पास बैठी युवती की ओर गयी.....मुझे लगा मैं तीस साल पीछे चला गया हूँ. मेरे बिलकुल करीब बैठी थी शुभा, वही नाक नक्श, वही मुस्कुराता सा चेहरा, वही दीप्ति, वही सब कुछ.....बस जींस और टीशर्ट पहने थी, कानों में बहुत बड़े बाले थे, कलाई पर मोटी सी घड़ी और कुछ धागे या रस्सियाँ भी जिन्हें फ्रेंडशिप बेंड कहा जाता है शायद. आँखों पर रीमलेस चश्मा था, कनखियों से देखा उन प्रोग्रेसिव लेन्सेस के पीछे वही हिरनी जैसी आँखे थी.....मैं देख तो नहीं सकता था मगर मैंने अपनी कनपटियों पर हाथ फेरा और अपने सफ़ेद बालों को महसूस किया. अचम्भा हो रहा था ऐसा कैसे हो सकता है....मैं तो उम्र के पचपन साल पूरे करके खुद को बूढा महसूस कर रहा हूँ.....और यह शुभा आज भी वैसी ही खिली खिली है. क्या मैं स्वप्न देख रहा हूँ ? क्या मैं पागल हो गया हूँ ? इलुजन और डिलुजन नमक असामान्य मनोवैज्ञानिक अवस्था में आ गया हूँ ? मैंने अपना काले फ्रेम वाला चश्मा उतार कर भी देखा (यद्यपि चश्मा उतारने पर मुझे सब कुछ धूमिल दिखाई देता है) ...मगर शुभा को मैं उस धूमिल दृष्टि से भी पहचान सकता था. फिर वैसे ही स्पंदन मुझे महसूस हो रहे थे.....मैं लौट आया था उन लम्हों में जो मेरे स्टुडेंट लाइफ का हिस्सा थे.
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