मैं ने विवाह को चाहा था, विवाह को झेला था.....मगर कभी भी गंभीरता से सोचा नहीं था.....कि मेरे विचार इस युगों पुरानी सामाजिक संस्था के लिए कैसे फोर्मुलेट हुए थे. मैंने कहा. " बेसिकली विवाह एक मर्द और एक औरत को ज़िन्दगी भर के लिए जोड़ता है....."
"ओह तो विवाह ना हुआ फेविकोल हो गया........कैसे जुड़ सकते हैं कैसे बंध सकते हैं दो जिंदा इंसान जिनके मस्तिस्क और स्नायु तंत्र अलग अलग हो, शरीर के अंग-प्रत्यंग अलग अलग हो, स्वभाव अलग हो, पालन पोषण का परिवेश अलग हो ?" बात बढाई थी शिवांगी ने.
"मेरे कहने का मतलब विवाह एक पवित्र बंधन है जिसे समाज और धर्म की मान्यता प्राप्त है." मैंने स्वयम को स्पष्ट करना चाहा था.
"तो किसी भी बात को पवित्र होने के लिए समाज और धर्म की मान्यता प्राप्त होना ज़रूरी है....अपने आप में पवित्र होना कुछ नहीं." कमेंट्स दागे थे उस ने.
"मेरे कहने का मतलब नर और नारी के रिश्ते को सामाजिकता देने से है." मैं बोला था
" तो अन्यथा नर और नारी का सम्बन्ध असामाजिक होता है ना ?" उस ने ना जाने सवाल किया था या तर्क.
"अगर समाज कि मान्यता ना हो तो ऐसे रिश्ते अनैतिक और अवैध होते हैं....." मैंने कहा था.
"क्यों ?" वह पूछ रही थी.
"भई व्यवस्था चलानी होती है, समाज को.....बच्चों को नाम देना होता है बाप का......संतान को कानूनी अधिकार और विरासत के हुकूक दिलाने होते हैं, फिर यह सब तो भगवान की मर्ज़ी से होता है.....कहतें हैं ना-'Marriages are made in heaven." मैंने बुजुर्गाना अंदाज़ में कह दिया था.
किन्तु उसके लिए यह कहाँ कन्विंसिंग हो सकता था, "सर ! ईश्वर कि मर्ज़ी के बिना कुछ भी नहीं होता ऐसा माना जाता है, धर्म भी कहता है समाज भी इसी बात के ढोल पीटता है, फिर आप बताएं क्या शादी ना की हो उनके बच्चा नहीं हो सकता ? अगर भगवान कि मर्ज़ी से विवाह का संपादन होता तो भगवान क्या बिना शादी के मर्दों कि नसबंदी और औरतों का बंध्याकरण नहीं कर देता ... और आजकल तो गर्भाधान के लिए सदेह पुरुष की भी आवश्यकता नहीं होती, कृत्रिम गर्भाधान की भी कई प्रणालियाँ विकसित हो गयी है.....पहले भी नियोग प्रथा में ऋषि मुनि विवाहित महिलाओं को संतान दान देते थे....फिर बहुत सी शादियों में बच्चे नहीं पैदा होते तो क्या वे शादियाँ उदेश्यहीन हो जाती है. इसलिए बच्चों वाली बात पर पुनर्विचार करें. ."
मैंने दूसरे ड्रिंक का आर्डर दे दिया था.....शिवांगी अपने उसी गिलास से हौले हौले चुस्कियां ले रही थी....
मुझे भी अपने दर्शन शास्त्र कि पढाई के दौरान पढ़े पाठ याद आ रहे थे, भोगे हुए यथार्थ की विडम्बनाएँ भी.....मगर फिर भी जी नहीं मान रहा था की इस 'पवित्र संस्था' के लिए कुछ ऐसा कहूँ या स्वीकारूँ जो समाज और उसकी व्यवस्था के अनुकूल ना हो.....लग रहा था धरती और आसमान के बीच एक मुसाफिरी बात चीत के दौरान भी मैंने ऐसा कर लिया तो समाज जो आस पास कहीं भी नहीं, तबाह हो जायेगा, बर्बाद हो जायेगा.
कुछ और कुतर्क शिवांगी के
"सर फिलोसोफी आपका सब्जेक्ट रहा है और रस्सेल आपका फेवरिट, आपने मेरिज इंस्टीटयूसन पर उसके विचार ज़रूर पढ़े, जाने और समझे होंगे." शिवांगी के शब्द मेरे ड्रिंक को कमज़ोर बना रहे थे.
"हाँ रस्सेल को मैंने पढा है मैं नहीं सहमत उसकी बात से कि मेरिज कुछ नहीं एक समाज स्वीकृत वैश्या वृत्ति है, रस्सेल के सोच पश्चिम के अनुभवों पर आधारित थे, जहां विवाह एक संस्कार कम और करार अधिक होता है. वे क्या जाने इस पवित्र रिश्ते कि गरिमा, हमारे यहाँ तो कहा है यज्ञ नहीं हो सकता पत्नि के बिना, पुरुष स्वर्ग में प्रवेश नहीं पा सकता पत्नि के बिना." मैंने उत्तर दिया था.
"सर, यज्ञ में कितने दम्पति आज के दिन शरीक होते हैं, आज तो बेसिक याने यज्ञ तक बेमानी हो गया है....और स्वर्ग ? होता होगा मगर क्यों ना जो ज़िन्दगी सामने है उस पर विचार किया जाय... इन बेमानी बातों से कोई पॉइंट प्रूव नहीं हो पाता....आम हिन्दुस्तानी की ज़िन्दगी में विवाह और उसमें औरत कि हालत को जरा सोचें रस्सेल कि इस बात में कटु सत्य का अनुभव होगा. मैं नहीं कहती उसकी बात कोई वेदवाक्य है, वाह पश्चिम का था तो कुदरतन उसने वहां के माहौल को ज्यादा देखा परखा था किन्तु उसके विचारों को सिर्फ इसी बिना पर तो नहीं ठुकराया जा सकता....आज भी पुरुष दांपत्य जीवन में यह सोचता है कि उसके बदौलत ही घर चलता है वाह कमाता है इसलिए ज़िन्दगी या कहें की औरत की हर चीज पर उसका हक है.....यहाँ तक कि औरत अगर कमाए भी तो पुरुष अपना अधिकार समझता है उसेक तन पर उसके मन पर....चाहे जो सुन्दर वाक्य बोले जायें...'एंड ऑफ़ द डे'
यही देखा जाता है मानो औरत मर्द कि जरखरीद हो.....कितने शादीशुदा लोग है जो यज्ञ और स्वर्ग की बात तक जानते हैं ?......रेस्तरां भी ले जाते हैं बीवी को तो कहते हैं आज उसे खिलाने ले गया था...मूवी अगर जाना हो तो खाविंद नहीं कहेगा 'बीवी' के साथ गया था, कहता रहेगा- आज उसको फिल्म दिखा के लाया...आज उसको शौपिंग करायी....यहाँ तक कहेगा-मैं काम पर ना जाऊँ तो घर का चूल्हा ना जले....पति को परमेश्वर कह कर उसे चढा दिया गया....सामाजिक वैश्या वृत्ति वाला पहलू अव्यक्त है....
पर 'एंड ऑफ़ द डे' कुछ भी मुल्लमा चढाएं, हकीक़त से आँख नहीं मूँद सकते." शिवांगी ने कुतर्क करना जारी रखा था.
मेरे ड्रिंक का स्वाद ख़राब हो रहा था, मेरे सर में अजीब सा दर्द हो रहा था मगर मैं फिर भी उस से बातें करना चाह रहा था.
"मैंने कहा ये सब तो हमारी विपन्न आर्थिक स्थिति और नारी शिक्षा के आभाव में हो रहा है...देखा नहीं जमाना कितना बदल गया है....आज नारी पुरुष के कंधे से कन्धा मिला कर भारत का नव निर्माण कर रही है." मैं नारे लगा रहा था.
"सर ! नारे बहुत सुन्दर लगा लेते हैं आप, विषय को सरका देना कोई आप से सीखे. आपने रस्सेल की यह बात ज़रूर पढ़ी होगी-Marriage is for women the commonest mode of livelihood, and the total amount of undesired sex endured by women is probably greater in marriage than in
prostitution. ( विवाह औरतों के लिए आजीविका का एक आम साधन है, और औरतों द्वारा अवांछित सेक्स को सहन करने की मात्रा संभवतः विवाह में वैश्यावृति से कहीं अधिक होती है.) क्या कहना है आपका इस पर."
लग रहा था शिवांगी ने ताज़ा ताज़ा रस्सेल को पढ़ा हुआ था.....कितनी बेबाक हो रही थी वो, कोई लिहाज़ नहीं.... अपने से बड़े से कैसे बातें कर रही थी. मैंने सोचा मेरे अन्दर से ऐसा लग रहा है कि मैं शुभा के साथ हूँ, मुझे इसकी बातों को बर्दाश्त कर लेना चाहिए-मैंने रेसन्लायिज़ कर लिया था....अहम् को लगी चोट पर मरहम लग गयी थी...आराम सा महसूस हो रहा था.
"शुभांगी अरे नहीं शिवांगी......." मैंने मुंह खोला था.
"आप मुझे शुभांगी ही कहिये अच्छा लग रहा है, ना जाने क्या सोच कर मेरी माँ ने मेरा नाम शिवांगी रखा होगा....शायद वाह नीलकंठ के सामान थी जिसने ज़िन्दगी का गरल पिया था....वह शिव थी और मैं उसका अंग शायद इसीलिए शिवांगी मगर उपमा के अनुसार क्योंकि मैं तो शुभा का ही अंग हूँ इसलिए मैं हूँ शुभांगी.....सर आप मुझे इसी नाम से संबोधित कीजिये प्लीज़.."
वह कह रही थी. उसके कहने का अंदाज़ और इसरार बिलकुल शुभा की तरहा ही था. मुझे लगा मानो शुभा कह रही हो, मेरे मन की बात को अपना बताकर मुझ पर एहसान कर रही हो.....नहीं नहीं ! शायद मुझे खुश देखना चाह रही हो.
"हाँ तो शुभांगी तुम जो कुछ कह रही हो वह भौतिक बातों से सम्बंधित है चाहे वह जीवन निर्वाह याने आर्थिक बात हो या यौन याने शारीरिक बात. विवाह केवल भौतिक पहलू पर ही आधारित नहीं अरे यह तो हमारी आत्मा से सम्बंधित है......दो शरीर नहीं दो आत्माएं मिलती है इसमें और मिल कर एकाकार हो जाती है." मैं बहला रहा था उसे.
ज़िन्दगी में भौतिक और मानसिक या कहा जाय कि अध्यात्मिक आवश्यकताओं को अलग होते हुए भी एक कर के देखना होता है, क्योंकि वही सम्पूर्णता है...सामान्य तल पर इस दोनों को अलग नहीं किया जा सकता.....अंतरनिर्भर है ये. फिर भी मैं आप ही की बात के अनुसार एक दफा सोचती हूँ.....बात नैतिकता की करते हैं. यौन और प्रेम को विवाह के दायरे में कैद कर आपने एक आचार संहिता सी बना दी है....यौन को तो बहुत ही घृणा की दृष्टि से देखा गया है, विवाह में भी संतानोत्पति के लिए ही सेक्स करने की बात हमारे शास्त्र कहते हैं....कामेच्छा को पापेच्छा ही माना जाता है....शरीर के अंग जिनसे कामक्रीड़ा संपादित कि जाती है गंदे अंग समझे जाते हैं....जहां विवाह में आप आत्मा की बात करते हैं, इन प्राकृतिक क्रियाओं को कहीं भी आत्मा से नहीं जोड़ा गया है...बस शारीरिक क्रियायें मान लिया गया है...मल-मूत्र विसर्जन के सदृश,इन सब के बावजूद यह पहलू इतना अहम् कि आपसी संबंधों और वफादारी का का आकलन केवल इन्ही क्रियाओं पर होता है.....एक पत्नि किसी अन्य पुरुष के लिए नहीं सोच सकती उससे रिश्ता नहीं बना सकती और एक पति भी किसी और औरत के साथ अपने सो शेयर नहीं कर सकता.....अगर ऐसा हो जाये तो मानों आसमां टूट गया....शादी जैसी संस्था की नीवें हिल गयी.....
ये सारी पाबंदियां इसलिए लगायी गयी कि ऐसा होना स्वाभाविक लगता था इसलिए पाबंदियों के बौल्डेर्स से फ्लो को रोका गया....मैं नहीं कहती ऐसा होना चाहिए या ऐसा नहीं होना चाहिए. हम बात विसंगतियों की कर रहे हैं.....रस्सेल कहते है :
I am not suggesting that there should be no morality and no self-restraint in regard to sex, any more than in regard to food. In regard to food we have restraints of three kinds, those of law, those of manners, and those of health. We regard it as wrong to steal food, to take more than our share at a common meal, and to eat in ways that are likely to make us ill. Restraints of a similar kind are essential where sex is concerned, but in this case they are much more complex and involve much more self-control. Moreover, since one human being ought not to have property in another, the analogue of stealing is not adultery, but rape, which obviously must be forbidden by law. The questions that arise in regard to health are concerned almost entirely with venereal disease. ........एक तरफ समाज नैतिकता की आत्मिकता कि बात करता है दूसरी तरफ इस तथाकथित नैतिक पक्ष को भोजन सा समझा गया है."
शुभांगी कुछ रुकी. उसने जारी रखा, " adultery के मनोविज्ञान को पारंपरिक नैतिकता ने झुठलाने की मनोवृति ली है, एक क्तित्रिम धारणा बना ली है कि एक व्यक्ति के प्रति आकर्षण का सह अस्तित्व नहीं हो सकता किसी दूसरे के प्रति गंभीर अनुराग और मनोभाव के साथ, हम सब जानते है कि कितना असत्य है यह प्रतिपादन मानव मनोविज्ञान की दृष्टि से ......किसी ने मान्यताओं के परे के सत्यों को देखने का प्रयास नहीं किया और विवाह के व्यवस्था पक्ष से अधिक नैतिकता के नाम पर इस पहलू को तवज्जो दे डाली......सर जरा सोचिये ना इन सब में आत्मा,अंतर्मन, मनोभावों, सहजता आदि आयामों को कितना तोडा मरोड़ा गया है......वफादारी के नाम पर....मैं नहीं कहती शादी की संस्था नहीं होनी चाहिए....मेरे लिए यह एक वैयक्तिक बात है, दो वयस्कों को ईमानदारी से एक दूसरे कि शारीरिक और मानसिक ज़रूरतों को समझते हुए तय करना है कि उन्हें कैसे रहना चाहिए, क्या करना चाहिए.....कोई ज़रूरी नहीं कि वे घुटन के साथ जिये ....समाज के बनाये नियमों के लिए खुद की लगातार आहुति देते रहें.....मानती हूँ प्रश्न बहुत कठिन है किन्तु इन बातों पर आँख मुन्द कर अँधेरा तो नहीं किया जा सकता......किसी ने लीक से हाथ कर कुछ किया तो आपकी स्मृतियों की किताबें खुल गयी और उसे व्यभिचारी/व्यभिचारिणी के खिताब से नवाज़ दिया गया....जब इस संस्था के आधार में आत्मा की बातें भी है तो आत्मा की बात को क्यों ना स्वीकार ली जाय ?"
शिवांगी अभी भी उसी गिलास से हौले हौले पी रही थी और मेरा ड्रिंक ख़त्म होने को था.
जिन-टोनिक ने मेरी उत्तेजित और चोट खाए स्नायुओं को सूथ कर दिया था, या मुझे कुछ शांति का अनुभव हो रहा था किसी अनजाने कारण कि बदौलत कह नहीं सकता मगर मैं स्वयम को सकारात्मक पा रहा था. मुझे शुभांगी कि तर्कों में कुछ तथ्य नज़र आ रहे थे..... खुले दिमाग से उसकी बातों पर मेरा सोचना आरम्भ हो गया था. मुझे लग रहा था शुभा कह रही है और मैं सुन रहा हूँ...जैसा कि होता आया था.
" बात तो तुम ठीक ही कह रही हो, लगता है आत्मा और अध्यात्म का जमा पहना कर इस संस्था को भौतिक तल पर चलने की स्कीम हमारे कर्णधारों ने सर्वजन हिताय सर्वजन हिताय की हो.....बुरा मत मानना शुभांगी मुझे तुमको सुनना अच्छा लग रहा है, समहाउ मुझे लग रहा है कि मैं अधिक कहूँगा कुछ तो तुम्हारा फ्लो रूक जायेगा.....तुम कहो ना मैं सुन रहा हूँ, विचार भी कर रहा हूँ...." मैं बोल उठा था और अगले ड्रिंक कि प्रतीक्षा भी कर रहा था.
"सर ! लगता है आप ने हथियार डाल दिए हैं.....और मुझे ऐसा भी महसूस हो रहा है आप मेरी बात सुन कर अंतर्मन में ख़ुशी पा रहे हैं.....चलिए मैं और कहूँगी इस विषय पर.....मुझे भी कहना अच्छा लग रहा है." इतनी सीढ़ी सच्ची बात शुभांगी कह रही थी बिलकुल शुभा की तर्ज़ पर भी कि मुझे बार बार लगातार एहसास हो रहा था...शुभा के पास बैठा हूँ, उसे सुन रहा हूँ.
"चलिए थोड़ा सा बात का क्रम बदलते हैं, आपने बर्नार्ड शा की यह बात तो पढ़ी/सुनी होगी, जिसका सारांश है- all reasonable men adapt themselves to world. Only a few unreasonable ones persist in trying to adapt the world to themselves. All progress in the world depends on these unreasonable men and their innovative and often nonconformist actions. (सभी युक्तिसंगत व्यक्ति स्वयम को संसार के अनुकूल/समरूप बनाते हैं. केवल थोड़े से अव्युक्तिसंगत/अपवाद व्यक्ति विश्व को स्वयम के अनुकूल/समरूप बनाते हैं. विश्व का समस्त विकास इन अपवाद व्यक्तियों एवम उनके अभिनव और मान्यताओं का अनुसरण नहीं करनेवाले कार्य-कलापों पर निर्भर करता है.)"
ना जाने क्या कहना चाह रही थी वह, शायद मुझे हराने का यह भी कोई उसका पैंतरा रहा हो.... मैं सावधान हो गया था. उसके इस सवाल का जवाब केवल 'हाँ' में हो सकता था.
मैंने नए गिलास से एक घूँट भरा और कहने लगा, " पढ़ा हुआ तो ख़याल में आ रहा है, किन्तु शुभांगी यह दुनिया अपवाद पुरुष स्त्रियों से तो नहीं बनी है....हम सब साधारण मनुष्य है जो किसी व्यवस्था के तहत जी रहे हैं. हमें इन अभिनव और विद्रोही कार्यकलापों से क्या लेना देना....रोज़ी रोटी कमाना, थोड़ी मौज मस्ती करना, सामाजिक जिम्मेदारियों को निबाहते हुए अपना विकास करते हुए जीवन व्यतीत करना .....इसी में सुकून पाना ....यही सब तो हैं हम जैसे लोगों के जीने के सबब."
" हियर यू आर.....बात जब ना संभले तो साधारण मानुष बन जायें....कोई ज़रूरी नहीं कि साधारण मानुष बन कर जीने के क्रम में हम अपने सोचों के दरवाज़े बंद कर के रखे.....यह भी ज़रूरी नहीं कि अपवाद नर-नारी बन कर खुद को साबित करें....मुद्दे को समझने के क्रम में हम विषय से हट कर भरमाने वाले बिंदु उभार लातें हैं जिस से हम अपने आपको जैसे तैसे बचा लेते हैं कंट्रोवर्सी से....लेकिन दिस इस नोट डन...बात निकली है तो दूर तलक जायेगी....या तो आप विवाह संस्था और उसमें नर नारी की स्थिति पर स्पेसिफिक बोलिए या मुझे सुनिए."
"मैं तो सुन ही रहा हूँ शुभांगी.....मैंने कहा ना....." कहा मैंने. मन की बात पढ़ लेती थी यह भी शुभा की तरह, मैंने शब्दों को चबाते हुए जो कहा था समझ गयी थी तभी तो इस तरह रिएक्ट कर रही थी.
"ईमानदारी से दिमाग खोल कर सुनिए." अधिकारपूर्ण था उसका कहना. कह रही थी :
" विवाह एक बहुत बड़ी सीख है. यह तो जानने सीखने का एक अवसर है. सीखना कि निर्भरता प्रेम नहीं है, निर्भर होने के मायने है-वैमनस्य, क्रोध, घृणा, जलन, पजेसिवनेस, हुकूमत करने की प्रवृति. इसमें यह सीखा जाना होना चाहिए कि बिना निर्भर हुए कैसे जिया जाये....किन्तु यहाँ तो निर्भर होने का नाम विवाह है. यह तो दो व्यक्तियों के बीच मैत्री होनी चाहिए....इसे विवाह का नाम ना देकर मैत्री अथवा मित्रता कहना होगा...क्योंकि 'विवाह' शब्द विषाक्त हो चुका है. दो व्यक्तियों का परस्पर प्रेम हेतु मिलन होना चाहिए...शेष सब बातें तो स्वतः ही घटी हो जाती है यथानुरूप. आनेवाले कल के लिए कोई प्रतिज्ञा नहीं, वर्तमान में जो क्षण है वह यथेष्ट है. यदि दो व्यक्ति इस क्षण एक दूजे से प्रेम में हैं, अपने आपको तह-ए-दिल से एक दूसरे से शेयर करते हैं तो यह क्षण संपूर्ण है और इसी संपूर्ण क्षण से ऐसे ही आगामी क्षणों का जन्म होगा. मानती हूँ नर-नारी का संग होना एक हर्षपूर्ण स्थिति है किन्तु यह स्थिति ज़रुरत का सौदा नहीं प्रेम कि उपज होना चाहिए, यह ज़रुरत को पूरा करना नहीं आपसी ख़ुशी का स्रोत होना चाहिए, यह गुरवत का नतीजा नहीं धनी होने का परिणाम होना चाहिए, इसका आधार देना होना चाहिए--लेना-देना नहीं. इस साथ कि तुलना में फूल से करती हूँ जो महक से इतना भरा होता है कि उसे हवा में सुगंध का विसर्जन करना ही होता है......इसकी तुलना मैं एक जल से भरेपूरे बदल से करना चाहती हूँ जिसे जल की बौछारें करनी ही होती है.....मेरी नजर में शादी एक जरूरतों कि तिजारत नहीं...प्रेम का संगीत है..."
शुभांगी की पैनी बातें क्रमशः कोमल होते जा रही थी....उसकी बातें मेरे घायल दिल को अमृत सा स्पर्श दे रही थी. मैंने कहा, "शुभांगी चुप क्यों हो गयी, और कहो...मुझे अच्छा लग रहा है. मैं गिलास को छू तक नहीं रहा था....मानो शुभांगी के शब्द ही टोनिक बन गए थे.
"शादियाँ या तो एक सेक्सुअल अरेंजमेंट होती है या क्षणिक रूमानी प्यार का साधन. रूमानी प्यार बीमार होता है. चूँकि हम बहुतों से प्रेम नहीं कर पाते हमारे प्रेम करने की क्षमता एकत्र होती जाती है. तब हम प्लावित हो जाते हैं प्रेम से....जब भी कोई मिल जाता है अथवा ऐसा अवसर मिल जाता है, हमारा प्लावित (over-flooded) प्रेम प्रक्षिप्त (projected) होता है. एक सामान्य नारी परी हो जाती है और एक सामान्य नर दिव्य......किन्तु जब बाढ़ उतर जाती है और हम सामान्य हो जाते हैं, हमें लगता है हमारे संग धोखा हुआ है.....हम ठगे गए हैं.....वह एक साधारण पुरुष हो जाता है और वह एक साधारण स्त्री....
यह रूमानी पागलपन हमारी एक-विवाही प्रशिक्षण का नतीजा है, यदि व्यक्ति को स्वतंत्रतापूर्वक प्यार करने दिया जाय तो ऐसे कोई भी तनाव नहीं उपजेंगे जिन्हें समय समय पर रूमानियत, कुंठा, क्रोध आदि के नाम पर प्रर्दशित किया जाय......एक बीमार समाज में ही रूमानियत संभव है....एक स्वस्थ समाज में प्रेम होगा रोमांस नहीं......और जब प्रेम है रोमांस नहीं तो विवाह एक गहरे स्तर पर होगा और वह कुंठा नहीं होगा. विवाह केवल प्रेम के लिए नहीं बल्कि और अधिक अन्तरंग संग के लिए हो---'मैं-तुम' को हम बनाने के लिए हो.....तब कहा जा सकता है कि विवाह अहम्-हीन होने का प्रशिक्षण पाने का एक अवसर है. किन्तु विवाह संस्था के तहत हम ऐसे उदाहरण नहीं पाते हैं.
"प्रेम कि उत्कंठा बहुत तीव्र होती है किन्तु प्रेम के लिए अत्यधिक बोध और चेतना की आवश्यकता होती है. ऐसा हो तभी प्रेम अपनी पराकाष्ठा तक पहुँच सकता है.....और यह पराकाष्ठा होती है विवाह....विवाह दो हृदयों का संपूर्ण विलय है.... यह दो व्यक्तियों का full synchronity में क्रियाशील होना होता है.....चाहे वे एक छत के नीचे रहे अथवा नहीं......सर सुना है आपने ऐसे किसी विवाह के बारे में ? ऐसे किसी प्रेम के बारे में ?"
शुभांगी बातों के सफ़र को कहाँ से कहाँ ले गयी थी.मैं निर्निमेष उसके चेहरे को गौर से देख रहा था....उसके शब्द मेरे मन का कलुष धो चुके थे ......उसकी उपस्थिति मात्रा से मैं स्वयम को हल्का महसूस कर रहा था.....मुझे ऐसा लग रहा था किसी ने मुझ मुरदे को जीवनदान देकर फिर से जिन्दा किया हो. मेरे निर्जीव शरीर में प्राण फूंके हो, मेरे मन को जागृत किया हो. मेरे मन में अनगिनत जल तरंग बजने लगे थे. मुझे शुभा के पास होने के एहसास हो रहे थे.....शुभांगी मुझे शुभा ही दीख रही थी. मैंने शुभांगी को अपने करीब खींच लिया था.....उसने भी कोई आपति नहीं की थी. मैं उसे गहरे प्रेम के एहसासों के साथ चूम रहा था.....मुझे लग रहा था आज मैं पूर्ण था.......शुभा/शुभांगी का स्पर्श मुझ लोहे के लिए पारस के समान हो गया था.....मैं खरा सोना बन गया था . (क्रमशः)
"हाँ रस्सेल को मैंने पढा है मैं नहीं सहमत उसकी बात से कि मेरिज कुछ नहीं एक समाज स्वीकृत वैश्या वृत्ति है, रस्सेल के सोच पश्चिम के अनुभवों पर आधारित थे, जहां विवाह एक संस्कार कम और करार अधिक होता है. वे क्या जाने इस पवित्र रिश्ते कि गरिमा, हमारे यहाँ तो कहा है यज्ञ नहीं हो सकता पत्नि के बिना, पुरुष स्वर्ग में प्रवेश नहीं पा सकता पत्नि के बिना." मैंने उत्तर दिया था.
"सर, यज्ञ में कितने दम्पति आज के दिन शरीक होते हैं, आज तो बेसिक याने यज्ञ तक बेमानी हो गया है....और स्वर्ग ? होता होगा मगर क्यों ना जो ज़िन्दगी सामने है उस पर विचार किया जाय... इन बेमानी बातों से कोई पॉइंट प्रूव नहीं हो पाता....आम हिन्दुस्तानी की ज़िन्दगी में विवाह और उसमें औरत कि हालत को जरा सोचें रस्सेल कि इस बात में कटु सत्य का अनुभव होगा. मैं नहीं कहती उसकी बात कोई वेदवाक्य है, वाह पश्चिम का था तो कुदरतन उसने वहां के माहौल को ज्यादा देखा परखा था किन्तु उसके विचारों को सिर्फ इसी बिना पर तो नहीं ठुकराया जा सकता....आज भी पुरुष दांपत्य जीवन में यह सोचता है कि उसके बदौलत ही घर चलता है वाह कमाता है इसलिए ज़िन्दगी या कहें की औरत की हर चीज पर उसका हक है.....यहाँ तक कि औरत अगर कमाए भी तो पुरुष अपना अधिकार समझता है उसेक तन पर उसके मन पर....चाहे जो सुन्दर वाक्य बोले जायें...'एंड ऑफ़ द डे'
यही देखा जाता है मानो औरत मर्द कि जरखरीद हो.....कितने शादीशुदा लोग है जो यज्ञ और स्वर्ग की बात तक जानते हैं ?......रेस्तरां भी ले जाते हैं बीवी को तो कहते हैं आज उसे खिलाने ले गया था...मूवी अगर जाना हो तो खाविंद नहीं कहेगा 'बीवी' के साथ गया था, कहता रहेगा- आज उसको फिल्म दिखा के लाया...आज उसको शौपिंग करायी....यहाँ तक कहेगा-मैं काम पर ना जाऊँ तो घर का चूल्हा ना जले....पति को परमेश्वर कह कर उसे चढा दिया गया....सामाजिक वैश्या वृत्ति वाला पहलू अव्यक्त है....
पर 'एंड ऑफ़ द डे' कुछ भी मुल्लमा चढाएं, हकीक़त से आँख नहीं मूँद सकते." शिवांगी ने कुतर्क करना जारी रखा था.
मेरे ड्रिंक का स्वाद ख़राब हो रहा था, मेरे सर में अजीब सा दर्द हो रहा था मगर मैं फिर भी उस से बातें करना चाह रहा था.
"मैंने कहा ये सब तो हमारी विपन्न आर्थिक स्थिति और नारी शिक्षा के आभाव में हो रहा है...देखा नहीं जमाना कितना बदल गया है....आज नारी पुरुष के कंधे से कन्धा मिला कर भारत का नव निर्माण कर रही है." मैं नारे लगा रहा था.
"सर ! नारे बहुत सुन्दर लगा लेते हैं आप, विषय को सरका देना कोई आप से सीखे. आपने रस्सेल की यह बात ज़रूर पढ़ी होगी-Marriage is for women the commonest mode of livelihood, and the total amount of undesired sex endured by women is probably greater in marriage than in
prostitution. ( विवाह औरतों के लिए आजीविका का एक आम साधन है, और औरतों द्वारा अवांछित सेक्स को सहन करने की मात्रा संभवतः विवाह में वैश्यावृति से कहीं अधिक होती है.) क्या कहना है आपका इस पर."
लग रहा था शिवांगी ने ताज़ा ताज़ा रस्सेल को पढ़ा हुआ था.....कितनी बेबाक हो रही थी वो, कोई लिहाज़ नहीं.... अपने से बड़े से कैसे बातें कर रही थी. मैंने सोचा मेरे अन्दर से ऐसा लग रहा है कि मैं शुभा के साथ हूँ, मुझे इसकी बातों को बर्दाश्त कर लेना चाहिए-मैंने रेसन्लायिज़ कर लिया था....अहम् को लगी चोट पर मरहम लग गयी थी...आराम सा महसूस हो रहा था.
"शुभांगी अरे नहीं शिवांगी......." मैंने मुंह खोला था.
"आप मुझे शुभांगी ही कहिये अच्छा लग रहा है, ना जाने क्या सोच कर मेरी माँ ने मेरा नाम शिवांगी रखा होगा....शायद वाह नीलकंठ के सामान थी जिसने ज़िन्दगी का गरल पिया था....वह शिव थी और मैं उसका अंग शायद इसीलिए शिवांगी मगर उपमा के अनुसार क्योंकि मैं तो शुभा का ही अंग हूँ इसलिए मैं हूँ शुभांगी.....सर आप मुझे इसी नाम से संबोधित कीजिये प्लीज़.."
वह कह रही थी. उसके कहने का अंदाज़ और इसरार बिलकुल शुभा की तरहा ही था. मुझे लगा मानो शुभा कह रही हो, मेरे मन की बात को अपना बताकर मुझ पर एहसान कर रही हो.....नहीं नहीं ! शायद मुझे खुश देखना चाह रही हो.
"हाँ तो शुभांगी तुम जो कुछ कह रही हो वह भौतिक बातों से सम्बंधित है चाहे वह जीवन निर्वाह याने आर्थिक बात हो या यौन याने शारीरिक बात. विवाह केवल भौतिक पहलू पर ही आधारित नहीं अरे यह तो हमारी आत्मा से सम्बंधित है......दो शरीर नहीं दो आत्माएं मिलती है इसमें और मिल कर एकाकार हो जाती है." मैं बहला रहा था उसे.
ज़िन्दगी में भौतिक और मानसिक या कहा जाय कि अध्यात्मिक आवश्यकताओं को अलग होते हुए भी एक कर के देखना होता है, क्योंकि वही सम्पूर्णता है...सामान्य तल पर इस दोनों को अलग नहीं किया जा सकता.....अंतरनिर्भर है ये. फिर भी मैं आप ही की बात के अनुसार एक दफा सोचती हूँ.....बात नैतिकता की करते हैं. यौन और प्रेम को विवाह के दायरे में कैद कर आपने एक आचार संहिता सी बना दी है....यौन को तो बहुत ही घृणा की दृष्टि से देखा गया है, विवाह में भी संतानोत्पति के लिए ही सेक्स करने की बात हमारे शास्त्र कहते हैं....कामेच्छा को पापेच्छा ही माना जाता है....शरीर के अंग जिनसे कामक्रीड़ा संपादित कि जाती है गंदे अंग समझे जाते हैं....जहां विवाह में आप आत्मा की बात करते हैं, इन प्राकृतिक क्रियाओं को कहीं भी आत्मा से नहीं जोड़ा गया है...बस शारीरिक क्रियायें मान लिया गया है...मल-मूत्र विसर्जन के सदृश,इन सब के बावजूद यह पहलू इतना अहम् कि आपसी संबंधों और वफादारी का का आकलन केवल इन्ही क्रियाओं पर होता है.....एक पत्नि किसी अन्य पुरुष के लिए नहीं सोच सकती उससे रिश्ता नहीं बना सकती और एक पति भी किसी और औरत के साथ अपने सो शेयर नहीं कर सकता.....अगर ऐसा हो जाये तो मानों आसमां टूट गया....शादी जैसी संस्था की नीवें हिल गयी.....
ये सारी पाबंदियां इसलिए लगायी गयी कि ऐसा होना स्वाभाविक लगता था इसलिए पाबंदियों के बौल्डेर्स से फ्लो को रोका गया....मैं नहीं कहती ऐसा होना चाहिए या ऐसा नहीं होना चाहिए. हम बात विसंगतियों की कर रहे हैं.....रस्सेल कहते है :
I am not suggesting that there should be no morality and no self-restraint in regard to sex, any more than in regard to food. In regard to food we have restraints of three kinds, those of law, those of manners, and those of health. We regard it as wrong to steal food, to take more than our share at a common meal, and to eat in ways that are likely to make us ill. Restraints of a similar kind are essential where sex is concerned, but in this case they are much more complex and involve much more self-control. Moreover, since one human being ought not to have property in another, the analogue of stealing is not adultery, but rape, which obviously must be forbidden by law. The questions that arise in regard to health are concerned almost entirely with venereal disease. ........एक तरफ समाज नैतिकता की आत्मिकता कि बात करता है दूसरी तरफ इस तथाकथित नैतिक पक्ष को भोजन सा समझा गया है."
शुभांगी कुछ रुकी. उसने जारी रखा, " adultery के मनोविज्ञान को पारंपरिक नैतिकता ने झुठलाने की मनोवृति ली है, एक क्तित्रिम धारणा बना ली है कि एक व्यक्ति के प्रति आकर्षण का सह अस्तित्व नहीं हो सकता किसी दूसरे के प्रति गंभीर अनुराग और मनोभाव के साथ, हम सब जानते है कि कितना असत्य है यह प्रतिपादन मानव मनोविज्ञान की दृष्टि से ......किसी ने मान्यताओं के परे के सत्यों को देखने का प्रयास नहीं किया और विवाह के व्यवस्था पक्ष से अधिक नैतिकता के नाम पर इस पहलू को तवज्जो दे डाली......सर जरा सोचिये ना इन सब में आत्मा,अंतर्मन, मनोभावों, सहजता आदि आयामों को कितना तोडा मरोड़ा गया है......वफादारी के नाम पर....मैं नहीं कहती शादी की संस्था नहीं होनी चाहिए....मेरे लिए यह एक वैयक्तिक बात है, दो वयस्कों को ईमानदारी से एक दूसरे कि शारीरिक और मानसिक ज़रूरतों को समझते हुए तय करना है कि उन्हें कैसे रहना चाहिए, क्या करना चाहिए.....कोई ज़रूरी नहीं कि वे घुटन के साथ जिये ....समाज के बनाये नियमों के लिए खुद की लगातार आहुति देते रहें.....मानती हूँ प्रश्न बहुत कठिन है किन्तु इन बातों पर आँख मुन्द कर अँधेरा तो नहीं किया जा सकता......किसी ने लीक से हाथ कर कुछ किया तो आपकी स्मृतियों की किताबें खुल गयी और उसे व्यभिचारी/व्यभिचारिणी के खिताब से नवाज़ दिया गया....जब इस संस्था के आधार में आत्मा की बातें भी है तो आत्मा की बात को क्यों ना स्वीकार ली जाय ?"
शिवांगी अभी भी उसी गिलास से हौले हौले पी रही थी और मेरा ड्रिंक ख़त्म होने को था.
जिन-टोनिक ने मेरी उत्तेजित और चोट खाए स्नायुओं को सूथ कर दिया था, या मुझे कुछ शांति का अनुभव हो रहा था किसी अनजाने कारण कि बदौलत कह नहीं सकता मगर मैं स्वयम को सकारात्मक पा रहा था. मुझे शुभांगी कि तर्कों में कुछ तथ्य नज़र आ रहे थे..... खुले दिमाग से उसकी बातों पर मेरा सोचना आरम्भ हो गया था. मुझे लग रहा था शुभा कह रही है और मैं सुन रहा हूँ...जैसा कि होता आया था.
" बात तो तुम ठीक ही कह रही हो, लगता है आत्मा और अध्यात्म का जमा पहना कर इस संस्था को भौतिक तल पर चलने की स्कीम हमारे कर्णधारों ने सर्वजन हिताय सर्वजन हिताय की हो.....बुरा मत मानना शुभांगी मुझे तुमको सुनना अच्छा लग रहा है, समहाउ मुझे लग रहा है कि मैं अधिक कहूँगा कुछ तो तुम्हारा फ्लो रूक जायेगा.....तुम कहो ना मैं सुन रहा हूँ, विचार भी कर रहा हूँ...." मैं बोल उठा था और अगले ड्रिंक कि प्रतीक्षा भी कर रहा था.
"सर ! लगता है आप ने हथियार डाल दिए हैं.....और मुझे ऐसा भी महसूस हो रहा है आप मेरी बात सुन कर अंतर्मन में ख़ुशी पा रहे हैं.....चलिए मैं और कहूँगी इस विषय पर.....मुझे भी कहना अच्छा लग रहा है." इतनी सीढ़ी सच्ची बात शुभांगी कह रही थी बिलकुल शुभा की तर्ज़ पर भी कि मुझे बार बार लगातार एहसास हो रहा था...शुभा के पास बैठा हूँ, उसे सुन रहा हूँ.
"चलिए थोड़ा सा बात का क्रम बदलते हैं, आपने बर्नार्ड शा की यह बात तो पढ़ी/सुनी होगी, जिसका सारांश है- all reasonable men adapt themselves to world. Only a few unreasonable ones persist in trying to adapt the world to themselves. All progress in the world depends on these unreasonable men and their innovative and often nonconformist actions. (सभी युक्तिसंगत व्यक्ति स्वयम को संसार के अनुकूल/समरूप बनाते हैं. केवल थोड़े से अव्युक्तिसंगत/अपवाद व्यक्ति विश्व को स्वयम के अनुकूल/समरूप बनाते हैं. विश्व का समस्त विकास इन अपवाद व्यक्तियों एवम उनके अभिनव और मान्यताओं का अनुसरण नहीं करनेवाले कार्य-कलापों पर निर्भर करता है.)"
ना जाने क्या कहना चाह रही थी वह, शायद मुझे हराने का यह भी कोई उसका पैंतरा रहा हो.... मैं सावधान हो गया था. उसके इस सवाल का जवाब केवल 'हाँ' में हो सकता था.
मैंने नए गिलास से एक घूँट भरा और कहने लगा, " पढ़ा हुआ तो ख़याल में आ रहा है, किन्तु शुभांगी यह दुनिया अपवाद पुरुष स्त्रियों से तो नहीं बनी है....हम सब साधारण मनुष्य है जो किसी व्यवस्था के तहत जी रहे हैं. हमें इन अभिनव और विद्रोही कार्यकलापों से क्या लेना देना....रोज़ी रोटी कमाना, थोड़ी मौज मस्ती करना, सामाजिक जिम्मेदारियों को निबाहते हुए अपना विकास करते हुए जीवन व्यतीत करना .....इसी में सुकून पाना ....यही सब तो हैं हम जैसे लोगों के जीने के सबब."
" हियर यू आर.....बात जब ना संभले तो साधारण मानुष बन जायें....कोई ज़रूरी नहीं कि साधारण मानुष बन कर जीने के क्रम में हम अपने सोचों के दरवाज़े बंद कर के रखे.....यह भी ज़रूरी नहीं कि अपवाद नर-नारी बन कर खुद को साबित करें....मुद्दे को समझने के क्रम में हम विषय से हट कर भरमाने वाले बिंदु उभार लातें हैं जिस से हम अपने आपको जैसे तैसे बचा लेते हैं कंट्रोवर्सी से....लेकिन दिस इस नोट डन...बात निकली है तो दूर तलक जायेगी....या तो आप विवाह संस्था और उसमें नर नारी की स्थिति पर स्पेसिफिक बोलिए या मुझे सुनिए."
"मैं तो सुन ही रहा हूँ शुभांगी.....मैंने कहा ना....." कहा मैंने. मन की बात पढ़ लेती थी यह भी शुभा की तरह, मैंने शब्दों को चबाते हुए जो कहा था समझ गयी थी तभी तो इस तरह रिएक्ट कर रही थी.
"ईमानदारी से दिमाग खोल कर सुनिए." अधिकारपूर्ण था उसका कहना. कह रही थी :
" विवाह एक बहुत बड़ी सीख है. यह तो जानने सीखने का एक अवसर है. सीखना कि निर्भरता प्रेम नहीं है, निर्भर होने के मायने है-वैमनस्य, क्रोध, घृणा, जलन, पजेसिवनेस, हुकूमत करने की प्रवृति. इसमें यह सीखा जाना होना चाहिए कि बिना निर्भर हुए कैसे जिया जाये....किन्तु यहाँ तो निर्भर होने का नाम विवाह है. यह तो दो व्यक्तियों के बीच मैत्री होनी चाहिए....इसे विवाह का नाम ना देकर मैत्री अथवा मित्रता कहना होगा...क्योंकि 'विवाह' शब्द विषाक्त हो चुका है. दो व्यक्तियों का परस्पर प्रेम हेतु मिलन होना चाहिए...शेष सब बातें तो स्वतः ही घटी हो जाती है यथानुरूप. आनेवाले कल के लिए कोई प्रतिज्ञा नहीं, वर्तमान में जो क्षण है वह यथेष्ट है. यदि दो व्यक्ति इस क्षण एक दूजे से प्रेम में हैं, अपने आपको तह-ए-दिल से एक दूसरे से शेयर करते हैं तो यह क्षण संपूर्ण है और इसी संपूर्ण क्षण से ऐसे ही आगामी क्षणों का जन्म होगा. मानती हूँ नर-नारी का संग होना एक हर्षपूर्ण स्थिति है किन्तु यह स्थिति ज़रुरत का सौदा नहीं प्रेम कि उपज होना चाहिए, यह ज़रुरत को पूरा करना नहीं आपसी ख़ुशी का स्रोत होना चाहिए, यह गुरवत का नतीजा नहीं धनी होने का परिणाम होना चाहिए, इसका आधार देना होना चाहिए--लेना-देना नहीं. इस साथ कि तुलना में फूल से करती हूँ जो महक से इतना भरा होता है कि उसे हवा में सुगंध का विसर्जन करना ही होता है......इसकी तुलना मैं एक जल से भरेपूरे बदल से करना चाहती हूँ जिसे जल की बौछारें करनी ही होती है.....मेरी नजर में शादी एक जरूरतों कि तिजारत नहीं...प्रेम का संगीत है..."
शुभांगी की पैनी बातें क्रमशः कोमल होते जा रही थी....उसकी बातें मेरे घायल दिल को अमृत सा स्पर्श दे रही थी. मैंने कहा, "शुभांगी चुप क्यों हो गयी, और कहो...मुझे अच्छा लग रहा है. मैं गिलास को छू तक नहीं रहा था....मानो शुभांगी के शब्द ही टोनिक बन गए थे.
"शादियाँ या तो एक सेक्सुअल अरेंजमेंट होती है या क्षणिक रूमानी प्यार का साधन. रूमानी प्यार बीमार होता है. चूँकि हम बहुतों से प्रेम नहीं कर पाते हमारे प्रेम करने की क्षमता एकत्र होती जाती है. तब हम प्लावित हो जाते हैं प्रेम से....जब भी कोई मिल जाता है अथवा ऐसा अवसर मिल जाता है, हमारा प्लावित (over-flooded) प्रेम प्रक्षिप्त (projected) होता है. एक सामान्य नारी परी हो जाती है और एक सामान्य नर दिव्य......किन्तु जब बाढ़ उतर जाती है और हम सामान्य हो जाते हैं, हमें लगता है हमारे संग धोखा हुआ है.....हम ठगे गए हैं.....वह एक साधारण पुरुष हो जाता है और वह एक साधारण स्त्री....
यह रूमानी पागलपन हमारी एक-विवाही प्रशिक्षण का नतीजा है, यदि व्यक्ति को स्वतंत्रतापूर्वक प्यार करने दिया जाय तो ऐसे कोई भी तनाव नहीं उपजेंगे जिन्हें समय समय पर रूमानियत, कुंठा, क्रोध आदि के नाम पर प्रर्दशित किया जाय......एक बीमार समाज में ही रूमानियत संभव है....एक स्वस्थ समाज में प्रेम होगा रोमांस नहीं......और जब प्रेम है रोमांस नहीं तो विवाह एक गहरे स्तर पर होगा और वह कुंठा नहीं होगा. विवाह केवल प्रेम के लिए नहीं बल्कि और अधिक अन्तरंग संग के लिए हो---'मैं-तुम' को हम बनाने के लिए हो.....तब कहा जा सकता है कि विवाह अहम्-हीन होने का प्रशिक्षण पाने का एक अवसर है. किन्तु विवाह संस्था के तहत हम ऐसे उदाहरण नहीं पाते हैं.
"प्रेम कि उत्कंठा बहुत तीव्र होती है किन्तु प्रेम के लिए अत्यधिक बोध और चेतना की आवश्यकता होती है. ऐसा हो तभी प्रेम अपनी पराकाष्ठा तक पहुँच सकता है.....और यह पराकाष्ठा होती है विवाह....विवाह दो हृदयों का संपूर्ण विलय है.... यह दो व्यक्तियों का full synchronity में क्रियाशील होना होता है.....चाहे वे एक छत के नीचे रहे अथवा नहीं......सर सुना है आपने ऐसे किसी विवाह के बारे में ? ऐसे किसी प्रेम के बारे में ?"
शुभांगी बातों के सफ़र को कहाँ से कहाँ ले गयी थी.मैं निर्निमेष उसके चेहरे को गौर से देख रहा था....उसके शब्द मेरे मन का कलुष धो चुके थे ......उसकी उपस्थिति मात्रा से मैं स्वयम को हल्का महसूस कर रहा था.....मुझे ऐसा लग रहा था किसी ने मुझ मुरदे को जीवनदान देकर फिर से जिन्दा किया हो. मेरे निर्जीव शरीर में प्राण फूंके हो, मेरे मन को जागृत किया हो. मेरे मन में अनगिनत जल तरंग बजने लगे थे. मुझे शुभा के पास होने के एहसास हो रहे थे.....शुभांगी मुझे शुभा ही दीख रही थी. मैंने शुभांगी को अपने करीब खींच लिया था.....उसने भी कोई आपति नहीं की थी. मैं उसे गहरे प्रेम के एहसासों के साथ चूम रहा था.....मुझे लग रहा था आज मैं पूर्ण था.......शुभा/शुभांगी का स्पर्श मुझ लोहे के लिए पारस के समान हो गया था.....मैं खरा सोना बन गया था . (क्रमशः)
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