मेरे दोस्त मुल्ला नसरुद्दीन से तो आप वाकिफ ही हैं . मुल्ला हैं 'सर्वगुणसंपन्न' शख्सियत. इतवार कि अलसाई सुबहें हम अक्सर साथ गुजरते हैं चाय कि प्यालियों के साथ. ऐसे भी वक़्त बेवक्त मुल्ला मेरे गरीबखाने पर तशरीफ़ ले ही आते हैं, बुलाये-बिनबुलाये. हाँ जब मुल्ला बेहद खुश होते हैं या बेइन्तेहा गमगीन और परेशान तो बिना घड़ी देखे मुंह उठाये चले आते हैं. आखिर यही तो दोस्ती का तकाजा होता है. मुल्ला और मासटर का बेमेल दीखनेवाला याराना इस छोटे से मोहल्ले में बड़ा मशहूर है.
एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन अचानक आ टपका. बड़ा उदास था, चेहरे पर हवाईयां उड़ रही थी, लगता था कि किसी बड़े हादशे से दो चार हुआ है. बहुत घबराया हुआ था मुल्ला. मैं किसी 'सायिकोलोजी' की किताब में सर गडाए बैठा था, किसी पाकिस्तानी इश्किया ग़ज़ल का जायका तरह तरह के ख़यालात तसव्वुर में लिए, लिए जा रहा था. गरमा गरम अदरक वाली चाय ने मिजाज़ भी जरा खुशनुमा किये हुआ था. ऐसे में मुल्ला की मुहर्रमी सूरत देख कर मेरे सारे पोजिटिव सोचों की ऐसी-तैसी हो गयी थी. फिर भी दोस्त आखिर दोस्त होता है, गुस्सा के साथ साथ हमदर्दी का ज़ज्बा भी मुझ में करवट ले चुका था.
मैने पूछा, "यार मुल्ला ! बता मुआमला क्या है ? मियाँ इतने उदास ? क्या बीवी ने फिर नौकरानी के साथ पकड़ लिया ?"
मुल्ला ने कहा, "मासटर ! आज हद हो गयी. आज बात और उलटी हो गयी."
मैने कहा, "क्या हुआ ? इस से और क्या बुरा हो गया ?"
मुल्ला नसरुद्दीन चुपा गया, बगले झाँकने लगा...आँखे उसकी भर आयी. मैने प्यार से पुचकार के कहा, "अमां यार कुछ कहोगे भी, या टसुये बहाते रहोगे. बताओगे तभी तो जानेंगे ना कि और क्या बुरा हो गया."
मुल्ला ने खंकार कर गला साफ़ किया और बोला " मासटर ! कुछ पिलाओ. मूड जरा बिगड़ा बिगड़ा सा है."
मैं जानता था कि पीनेवालों को तो पीने का बहाना चाहिए. मैं ने दारू छोड़ ड़ी तो ज़रूरी तो नहीं कि जनसाधारण इस पर अमल करे. उस दिन मेरे एक रिश्तेदार सूबेदार दुर्जनसिंगजी आये थे छावनी से और थ्री एक्स रम की एक बोत्तल छोड़ गए थे किसी रिश्तेदारन ने अपने खाविंद से छुपा कर मंगवाई थी, शायद केक बनाने में इस्तेमाल करने के लिए या अपने किसी खासमखास कि खातिर-तवज्जा करने के लिए. सूबेदार साहब ने मुझे सेंट्रल पोस्ट ऑफिस समझते हुए मेरे जिम्मे लगाया था कि वक़्त मिलने पर उन तक पहूंचा दूँ बोतल को.
मैने मियां को बाटली पकडाई और खुद नहाने घुस गया, असल में मैं रम कि गंध बर्दाश्त नहीं कर सकता, मुझे उसमें अस्तबल जैसी बू आती है. बाहर आया तो मुल्ला कोई चौथाई बोतल थम्सअप में मिला कर हलक से उत्तार चुका था और बेतकल्लुफी से मेरे दामी बादाम-पिश्तों का भोग भी लगा चुका था, उसका कार्यक्रम जारी था. मैने देखा कि मुल्ला में अब कांफिडेंस आ गया है, रम का असर था ही और मेरे साथ का भी, मुल्ला पुराने मुरदे सा अकड़ा अकड़ा सा बैठा था.
खैर मैने कहा, "मुल्ला अब तो बता यार क्या हुआ ?"
मुल्ला ने कहा, " मासटर, आज नौकरानी ने मुझे बीवी के साथ पकड़ लिया. बीवी तो फिर भी तमीजवार है, नौकरानी तो निपट गंवार और झगड़ालू. उसने इतना हंगामा मचाया कि मोहल्ले भर को इकठ्ठा कर लिया. बडी बेज्जती हुई, मासटर. आज समझ में आया, क्या कहते हो तुम फसायिक्लोजी में उसे, अरे वो 'पजेसिवनेस' कितनी बुरी होती है. काश सब समझते कि हरेक को अपना स्पेस चाहिए होता है."
मैं पजेसिवनेस पर एक केस-स्टडी पाकर अपना भेजा पीट रहा था.
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