Tuesday, January 12, 2010

शुभा..:. पहली किश्त)

एक दफा मुझे लगा कि मैं भी उन छद्म बुद्धिजीवियों में से ही एक हूँ जो अच्छी अच्छी बातें कहते हैं, आधा अधूरा सोच भी लेते हैं किन्तु करने में ठीक उस से उलट हरक़तों को अंजाम देते हैं. दुनिया भर का साहित्य पढ़ कर दिमाग को नए पुराने खयालातों से भर लेते हैं, उनकी मानसिक यात्रा पुरे विश्व की हो चुकी होती है, इतिहास की हर छोटी बड़ी राजनीतिक-सामाजिक क्रांतियों से उनका परिचय पूरे विवरण के साथ हुआ होता है. क्रांति-पुरुषों और क्रांति-नारियों का जीवन वृतांत उन्हें मुखस्थ होता है, यदा कदा उसे जीने का भी पाखण्ड करते हैं, मगर जब भी कोई सवाल आन खडा होता है उनकी कसौटी समाज, परिवार और आसपास का वातावरण हो जाता है. उनकी संकीर्णता, कायरता और भोंडापन अनायास ही सामने आ जाता है, चाहे उनके भारी भरकम शब्द और पैने तर्क उसको सही साबित करने की कितनी ही कोशिश क्यों ना करे. फिर सोच आया कि बात ऐसी नहीं, इसे देखने परखने के लिए सम्यक दृष्टि चाहिए........ चलिए यह अधूरी सी भूमिका काफी है फ़िलहाल, आपको 'बायस(bias)' क्यों करूँ ? आपसे पूरी बात शेयर क्यों ना करूँ ?
शुभा और मैं सेठ मंगनीराम बांगड़ पीजी कॉलेज में एक साथ पढ़े थे. बीए हम लोगों ने साथ साथ किया था. फिर मैं में फिलोसोफी में एम्.ए. कर रहा था और उसने एम्.ए. के लिए इंग्लिश लिटरेचर लिया हुआ था. दोनों ही अपनी अपनी विधा में अव्वल रहने वाले स्टूडेंट्स थे. दोनों ही पढाकू, कॉलेज की एक्स्ट्रा करिकुलर गतिविधियों में भाग लेने वाले. मैं स्पोर्ट्स में अपना डंका बजवा चुका था और शुभा अपने मधुर गायन के लिए कॉलेज में कोयल कहलाती थी. मेरे पिता ठाकुर सवाई सिंह पुराने जमींदार और रियासत के राजघराने का हिस्सा थे और शुभा के पिता डॉ. योगेश्वर पाण्डेय सरयुपारीय ब्राहमण जो अपने प्रक्टिस के सिलसिले में राजस्थान आकर बस गए थे. दोनों ही परिवार बहुत परम्परावादी, दकियानूस, और अपने अपने परिवारों के रुतबे के घमंड से भरे हुए थे. चूँकि उस कसबे का यह एकमात्र पीजी कॉलेज सहशिक्षा वाला था और पारिवारिक कारणों से अपनी अपनी औलाद को मातापिता नज़रों के सामने चाहते थे, मजबूरी में हम लोगों को इस छोटे से कॉलेज में 'पढ़वाया' जा रहा था.

खैर शुभा और मैं किसी ना किसी बहाने करीब आते गए. कहने को इस 'दोस्ती' को बनाया था हमारे सामान स्तर पर सोचने ने , मेरे उसके पसंदीदा शेक्सपियर और मिल्टन में रूचि लेने ने , उसके मेरे फेवेरिट सार्त्र और रुस्सेल के दर्शन में अभिरुचि दिखाने ने , उसके गाने के कौशल और मेरी बजाने की महारत ने, मेरे रौबीले राजपूती व्यक्तित्व ने-उसके आभिजात्य सौंदर्य और शारीरिक गठन ने, और भी ऐसे अच्छे कारणों कि फेहरिस्त थी मगर शायद हकीक़त में हम लोगों के ज़रुरत से ज्यादा बंदिशों वाले घरेलू माहौल ने नेपथ्य में रह कर हमारे रिश्ते को आगे बढाया था.....थोड़ा उम्र का तकाज़ा भी था.
'जस्ट फ्रेंड्स' 'प्लेटोनिक रिलेशनशिप' 'सोल-मेट्स' जैसे कई खिताब हम अपने इस रिश्ते को गाहे बगाहे दे देते थे. यहाँ तक कि आदर्शवाद के चक्कर में पड़ एक रक्षाबंधन पर हम लोगों ने सोचा था, "वोह अफसाना जिसे अंजाम तक लाना हो नामुमकिन उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा." खैर कभी बायोलोजी कभी सायकोलोजी, कभी दोनों अपने अपने चरम रूपों में हम पर हावी होती रही और हम ने इस सच को मान लिया कि हम प्रेमी-प्रेमिका है----हम बने तुम बने इक दूजे के लिए. स्पर्श की सीमाओं का भी निर्धारण समय समय पर होता था, कुछ 'अब' के लिए 'अलाउड' और कुछ 'तब' के लिए 'पेंडिंग'. कस्बाई कहिये, माध्यमवर्गीय कहिये ऐसे ही ऊहापोह में हमारा प्रेम का यह पौधा बड़ा हुआ था.
जैसा कि होना था, जब रिश्ता चौडे-छाने बढ़ता रहा तब तक कोई कुछ नहीं बोलता था, क्या हुआ कभी कभार घर के बड़े-बूढों ने दबी जुबान में कुछ बड़-बड़ा दिया हो या पीठ पीछे कसबे के लोगों ने हमारी प्रेम लघुकथा का कुछ चटपटा नमकीन संस्करण सीमित मात्रा में प्रकाशित किया हो. आखिर ठाकुर साहब और डॉ साहब अच्छे दोस्त जो थे. दोनों के परिवारों का एक दूसरे के घर आना जाना जो था. मगर जैसा होता है मेरे सम्बन्ध के लिए भी 'घरानों' से 'कुहावे' आने लागे....और डॉ. साहब को भी भारत/विश्व में फैले उनके सम्बन्धियों से पात्रों के सुझाव शुभा के लिए मिलने लगे. शुभा को देखनेवाले आने लगे, उसे जयपुर-दिल्ली-लखनऊ आदि जगहों पर भी किसी ना किसी बहाने उम्मीदवारों/उनके परिवारों से मिलाने के लिए ले जाया जाने लगा. ऐसे ही कार्यक्रम हमारे 'गढ़' (हवेली) में मेरे लिए होने लगे.....कुलमिलाकर ऐसा लगने लगा मानो 'प्रदर्शनी-सह-बिक्री' का आयोजन हमारे बाबत हो रहा था.
एमए फाईनल के इम्तेहान सर पर थे, हम लोगों का कॉलेज जाना बंद हो चुका था, मिलने पर लगाये घरवालों के 'प्रतिबन्ध' को हम लोग पढाई कि आवश्यकता समझते हुए,'रेशन्लायिज़' कर के खुद को भरमा रहे थे.
(क्रमशः.......)

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