उस दिन मन कुछ खोया खोया सा था. मायूसी का कारण मालूम नहीं था मगर मन बहुत खिन्न था. मेरे काकोसा का फ़ोन आया कि जीसा की तवियत नासाज़ है, डाक्टरों ने जवाब दे दिया है....बार बार मुझे याद कर रहे हैं, जगत से मिलने की ख्वाहिश ज़ाहिर कर रहे हैं. काकोसा कह रहे थे, "अजीत, भाईसा का साथ कितना है हमारे साथ, बोलना मुश्किल है, यह वक़्त और कुछ सोचने समझने का नहीं, जितना जल्दी हो सके घर चले आओ. जगत को भी फ़ोन कर दो कि बिना देर किये पहुँच जाये. मुझे लगता है हम लोगों के पास वक़्त बहुत कम है. "
बहुत सी पुरानी बातें अनचाहे भी जेहन में आ जा रही थी. मैंने तुरत जगत को फ़ोन किया.उसे उसके दादोसा के बहुत बीमार होने की बात बताई और उसको कहा कि वे उसे बहुत याद कर रहे हैं. जगत ने जीसा के बारे में सुना था मगर उनसे मिला कभी नहीं था......मगर उसने कोई भी हिचकिचाहट ज़ाहिर नहीं की. जगत ने कहा, "मैं अभी अगली उपलब्ध फ्लाईट से जयपुर के लिए बुकिंग करता हूँ. आप जयपुर में कुछ ऐसी व्यवस्था करवा दें कि मुझे वहां रिसीव किया जाये और सुजानगढ़ तक ले जायें. फ्लाईट डिटेल आपको तुरत देता हूँ." थोड़ी देर बाद जगत ने बताया कि उसकी फ्लाईट दो घंटे बाद है, मेरे एक जयपुर के दोस्त ने बाकी सारे इन्तेजामात संभाल लिए थे. जयपुर से हमारे घर तक पहुँचने में कोई चार घंटे लगते हैं....इस तरहा मेरे से बात होने के ८ घंटे के अन्दर जगत जीसा के पास सुजानगढ़ में था. मैंने भी तुरत अपनी यात्रा का इन्तेजाम किया, मैंने लुफ्तांसा कि पेरिस-बॉम्बे फ्लाईट से टिकेट बुक किया था जो लगभग दश घंटे का सफ़र था. बॉम्बे से मुझे कोई दो घंटे बाद जयपुर कि फ्लाईट मिलनी थी.
पेरिस एअरपोर्ट पर मैंने विमान में बोर्ड किया .....एयर होस्टेस ने मुझे अपनी सीट तक गाइड करके कम्फर्टेबल कर दिया था. मैंने "हेराल्ड अंड ट्रिब्यून' के पेज पलटने शुरू किये....मन नहीं लगा....'फोर्चून' मेग्जिन भी ना जाने क्यों मेरे मस्तिष्क को केन्द्रित नहीं करा सकी थी....मैं बिलकुल अस्तव्यस्त सा था....दिमाग में खयालों के झंझावत बेतरतीब आ जा रहे थे. मेरी सोचें एक आवारा इंसान कि मानसिकता की मानिंद डांवाडोल सी थी. मुझे जीसा की बीमारी को लेकर कोई फ़िक्र नहीं हो रहा था, उनको मैंने अपने दिल और दिमाग से निकाल जो दिया था. वो जियेंगे या दुनिया चले जायेंगे इसका मुझ पर कोई असर नहीं हो रहा था. आखरी वक़्त वे मुझे और जगत को याद कर रहे हैं, यह भी मेरी भावनाओं को कहीं नहीं छू रहा था....फिर भी मैंने क्यों जगत को तुरत जाने को कह दिया, मैं भी रवाना हो गया सात समंदर पार से....इसका कोई भी लॉजिक मेरे पास नहीं था. रोजमेरी के साथ बिताये अच्छे बुरे दिन खयालों में घूम रहे थे....रोजमेरी और मेरे सम्बन्ध क्रिया थे या प्रतिक्रिया..... जगत का जन्म एक संपूर्ण तन-मन-आत्मा के मेल का परिणाम था अथवा एक जैविक घटना.....मेरे मनोमस्तिष्क को मार्गरेट चची के अनुभव क्यों प्रभावित कर सके.....मैंने शुभा कि खोज इमानदारी से क्यों नहीं की......मैंने पल पल शुभा को क्यों याद किया, रोजमेरी और मैं जब भी साथ होते मेरे अचेतन अवचेतन में शुभा होती.....उसकी हर बात-उसकी हर हरक़त मैं शुभा से तुलना करके देखता .....मैं ने शादी ज़रूर की थी रोजी से मगर मेरे खयालों में हमेशा शुभा ही रहती थी....ऐसे में अगर रोजी ने मुझे छोड़ दिया तो क्या गलत किया. एक नारी पुरुष के स्पर्श मात्र से उसकी मानसिकता की पूरी पत्री समझ जाती है....यह स्पर्श तन से ज्यादा स्पंदनों और मन का होता है.....हो सकता है रोजी समझ गयी हो कि उसका और मेरा साथ महज़ एक खानापूर्ति है......
क्या मैं पलायन कर गया था .....मैं भगौड़ा हूँ.....मैं शुभा से भाग गया था .....मैं कायर हूँ...मैं अपने पिता के दंभ और परम्परावादी उसूलों के सामने झुक गया....उनसे अलगाव मेरी कुंठा है....अपनी असमर्थता से उपजी कुंठा.....बाप, वंश, जायदाद से दूर होकर कौनसा एहसान मैंने शुभा पर कर दिया.....और मेरी इस मनोवृति में कौनसा राजपूती औज झलकता है.......अपने मरुधर के धोरों से दूर फ्रांस की सजावटी दुनिया में खुद को छुपा कर मैंने खुद को कितना गिरा दिया.....मैं संघर्ष से हमेशा भागता रहा.....मैंने हमेशा यही अपेक्षा रखी कि संघर्ष कोई दूसरा ही करे....मैं तो हमेशा रणछोड़दास बना रहा......जगत की देखभाल करने में भी मैंने खुद को कमज़ोर महसूस किया था और उसको कोलकाता अपने अज़ीज़ दोस्त के पास भेज दिया था....शायद मस्तिष्क के पृष्ठ में यह चिंतन हो कि जगत के 'फोर्मेटीव फेज' में जो 'इनपुट्स' चाहिए वे उसे मेरे उस कामयाब हिन्दू दोस्त और उसकी मुसलमान बीवी से मिल सकेंगे जो भारतीयता के अनुपम उदाहरण थे ......जिन्होंने साथ होने के लिए समाज और परिवार से टक्कर ली थी. आत्मग्लानि के भाव मेरी मानसिकता पर बार बार आक्रमण कर रहे थे.....मुझे लग रहा था कि मैं कुंवर अजीत सिंह सिर्फ एक शरीर हूँ....मेरी आत्मा.... मेरा सारतत्व मुझ से बहुत दूर चला गया है.....मैं ढोए जा रहा हूँ यह नाम और यह नामधारी हाड़ मांस का पुतला.....मेरे श्वास -निश्वास एक यांत्रिक प्रक्रिया बन गए थे....मैं स्वयम को एक प्राणहीन पुतला पा रहा था....ना जाने किस सुसुप्तावस्था में यह आकांक्षा हो रही थी कि अब भी कोई प्राण-प्रतिष्ठा कर दे.....मुझे एक ज़िंदा इंसान बना दे..... (क्रमशः)
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