वो हमेशा 'क्वांटिटी' से ज्यादा 'क्वालिटी' पर पकड़ रखती थी. छोटी छोटी बातों में अप्रतिम प्रसन्नता को खोज निकलना उसकी विशेषता थी. मेरे जैसा व्यक्ति शायद शब्दों द्वारा अतिशयोक्ति दर्शाता रहता था अपने संवादों में, अपने पांडित्य का ढोल पीटता हुआ. उसकी एक बहुत ही गहरी रचना मैं यदा कदा पढ़कर स्वयम को संबोधित करता हूँ. बस...आज मात्र उसीको आपसे शेयर करना है.
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"तुम कहते हो कि
तुम सागर हो
मुझे तो बस एक
बूंद ही काफी है.
तुम कहते हो
मैं तुम्हारी उम्र हूँ
मुझे तो बस एक
सांस ही काफी है.
तुम कहते हो
देखना चाहते हो
निर्निमेष
मुझे तो बस एक
नज़र ही काफी है."
.......और इसका प्रत्युतर मेरी ओर से मात्र मेरा "मौन" था.....उसको बस एक दृष्टि, एक नज़र से देखते हुए, जहां समय थम सा जाता था।
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