Tuesday, January 12, 2010

शुभा : छठी किश्त : शिवांगी

मैंने कनखियों से देखा वह अयन रैंड का उपन्यास ' Atlas Shrugged' में डूबी हुई थी. शुभा भी तो 'ओब्जेक्टिविज्म' की फेन थी. उसके सोच का तरीका इस विचारिका से बहुत प्रभावित था.....थोथी भावुकता की बातों को वह अपने 'discounting factor' से समायोजित कर गृहण करती थी. उसका 'emotional IQ' मुझ से कहीं अधिक था. सच बात तो यह थी, की मैं उससे प्रेम करता था, मगर डरता और जलता भी था. तभी तो उसका मेरा प्रेम फलीभूत नहीं हो सका. कहने को हमने जन्म-जन्मान्तर की क़समें खायी थी, किन्तु हम अंतस से शायद एक पल भी नहीं जुड़ पाए थे. बहुत से पति-पत्नियों और प्रेमी-प्रेमिकाओं की कहानी बस यही होती है. अधिकांश रिश्ते अपने अहम् अथवा हीन भावनाओं के खेल खेलने के साधन मात्र होते हैं, उन्हें बस आवरण दे देते हैं हम प्रेम का, भरी भरकम नाम देकर उन्हें 'intellectual' श्रेणी में ले आते हैं अथवा पारंपरिक रूप देकर गर्वान्वित हो जाते हैं. शब्दकोष के शब्द मिल कर सतही तौर पर सब कुछ साबित कर जाते हैं. हम दावा करते हैं एक दूसरे को समझने का किन्तु सच तो यह है की हम शायद समझ की वर्णमाला का 'अ' तक नहीं जान पाते.
आज तटस्थ भाव से विचार कर रहा था मैं और अपने और शुभा के रिश्ते के खोखलेपन को समझ पा रहा था. देखा कि युवती ने पुस्तक बंद कर के रख दी थी. उसने मुस्कुरा कर मेरी तरफ देखा, कहा : "आप भी भारत जा रहे हैं." मैंने कहा : "हाँ" इच्छा थी कि बात आगे बढे. मैंने पूछ लिया, "आप भी भारतीय हैं ?" सवाल बेमानी था, तर्क के लिए वह पाकी भी हो सकती थी, मगर यह विमान लाहौर-कराची-इस्लामाबाद नहीं मुंबई जा रहा था. उसने मेरे सवाल कि बेवकूफी को नज़रंदाज़ किया, जैसे शुभा करती थी, कहा : "जी, मैं मुंबई जा रही हूँ, और शत प्रतिशत भारतीय हूँ." दिल-ओ-दिमाग में बहुत से प्रश्न घुमड़ रहे थे....उसकी पूरी जन्म-पत्री जानने की इच्छा हो रही थी....मगर पूछने की हिम्मत नहीं हो रही थी, ठीक वैसे ही जब मैं बहुत कुछ जानने की इच्छा होते हुए भी शुभा से नहीं पूछ पाता था.
एक चमत्कार सा हुआ....उसने शुरू किया बताना अपने बारे में, "मैं शिवांगी, वाराणसी मेरा घर है, मैंने वहीँ से दर्शन शास्त्र में मास्टर्स किया, और एक्सचेंज प्रोग्राम के तहत डोक्टोरल प्रोग्राम के लिए फ्रांस आई थी. मेरी थीसिस पूरी हुई, अनुमोदित हुई, और अब मैं भारत लौट रही हूँ." मैंने पूछा, "आपके माता पिता ?"
उसने कहा, और मुस्कुराते हुए कहा, "मैं अकेली हूँ, मेरे मातापिता जब मैं १६ साल कि थी तब एक कार दुर्घटना में चले गए, उसके बाद मैंने सब कुछ खुद पर ही किया...." उसके शब्दों और आँखों में आत्मविश्वास टपक रहा था जैसा कि शुभा से प्रस्फुटित होता था.
ढीठ बन कर कह बैठा, "बनारस के तंत्र अनुसन्धान आश्रम से मैं भी जोडित हूँ, उसका साहित्य पढता हूँ, मेरे बहुत से मित्र वहां रहते हैं, दो तो बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर हैं, एक का साडियों का एक्सपोर्ट का कारोबार है..." यह सब भूमिका थी, असल बात जो पूछी आवह थी, " आप के मातापिता का क्या नाम था, बहुत वर्ष पहले मेरे भी एक रिश्तेदार दम्पति दुर्घटना में अपने बहुमूल्य प्राण खो बैठे थे." युवती की समझ शक्ति और शालीनता पर मैं चकित था, उसने नहीं पूछा कौन थे आपके यह रिश्तेदार, क्या नाम थे उनके. उसने सहजता से कहा, " जी मेरे पापा का नाम प्रोफ़ेसर श्याम द्विवेदी था और मम्मी प्रोफ़ेसर शुभा द्विवेदी. दोनों ही BHU में पढ़ते थे....हाँ पापा के खानदान का पुश्तेनी रुद्राक्ष का व्यवसाय था, चूँकि पापा व्यावसायिक बुद्धि के नहीं थे, और इकलौते वारिस थे....बस निर्भर करते थे अपने विश्वाशी कर्मचारियों पर.....आज भी व्यवसाय को चन्द्र शेखर गुप्ताजी और हनीफ बही देखते हैं......मैं भी अपने मम्मी पापा पर गयी हूँ, मुझे बस पढने लिखने, सोचने से मतलब है......" शुभा का नाम सुन कर जो भाव मुझ में आये, उन्हें आश्चर्य, विस्मय, आघात कुछ भी कह सकते हैं.....शुभा चली गयी किन्तु उसकी उपस्थिति मैं अपने करीब महसूस कर रहा था.....मेरे पास शिवांगी नहीं मानो शुभा ही बैठी थी. (क्रमशः)

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