आप समझ ही गए होंगे मेरी और शुभा कि मानसिकता इन खतों को बतौर सैम्पल मानते हुए. मैं उतावला उद्विग्न और थोड़ा सा निराशावादी रहा हूँ. जब कि शुभा हमेशा गंभीर, आशावादी और सकारात्मक सोचों वाली. भला हो तेजल और रवि का, उनके ज़रिये हमारा लगातार कम्युनिकेशन बना रहा. पत्रों ने हमें और खासकर मुझे बहुत सपोर्ट दिया उन अलगाव के महीनों को व्यतीत करने में. हमारी परीक्षा के परिणाम जब आये, शुभा ने टॉप किया था, मुझे फर्स्ट डिविजन मिली थी मगर टोप्पर कोई और ही था. पाण्डेय अंकल ने शुभा के शानदार रिजल्ट को सेलेब्रेट करने के लिए एक 'गेट-टुगेदर' रखा था जिसमें हमारा पूरा परिवार शरीक हुआ था. शुभा के रिजल्ट से मैं बहुत खुश था, मगर खुद के अपेक्षा से कम पाने की खुन्द मन में थी. शुभा को देखते ही मेरा चेहरा खिल उठा था. मैंने उसे कोंग्रेचुलेट किया, नज़रों से एक दूसरे पर प्यार कि बौछार की. जीसा और डाक्टर साहब अपने तौर पर बहुत खुश थे और बातों में मशगूल थे. पार्टी के दूसरे दिन पाण्डेय परिवार नैनीताल चला गया...जहां उनकी पुश्तेनी कोठी थी. मालूम हुआ कि लम्बा प्रोग्राम ले कर गए हैं, शुभा के साख-सम्बन्ध के लिए भी प्रयास होने हैं. जाते जाते शुभा ने एक पाती मुझ तक पहुंचाई, जिसमें उसने लिखा था, "दूरियां आत्मा के रिश्तों को नहीं मिटा सकती. तुम बेफिक्र रहना. हम को मिलने से कोई नहीं रोक सकता. मन-चित्त शांत रखना, जीसा से मत उलझना. मैं हर पल अपने ह्रदय में तुम्हारे नाम का दिया जला कर रखूंगी."
कोई दो सप्ताह बीते थे कि फ्रांस से जीसा के अभिन्न मित्र प्रोफ़ेसर प्रदीप सान्याल हमारे यहाँ मेहमान बन कर आये, साथ में उनकी फ्रांसीसी बीवी मार्गरेट भी थी. मार्गरेट फ्रांस में फैशन डिजाइनर थी. सान्याल अंकल कि यह तीसरी और मार्गरेट की चौथी शादी थी. जीसा और सान्याल अंकल बहुत गहरे दोस्त थे, इंग्लैंड में दोनों ने साथ साथ पढाई की थी. बहुत सी डिग्रीयां बटोर सान्याल अंकल अन्तराष्ट्रीय स्तर के मैनेजमेंट गुरु के रूप में ख्याति पा चुके थे. फिलहाल वे फ्रांस के INSEAD नमक मैनेजमेंट इंस्टिट्यूट में फेकल्टी थे. चूँकि हमारे यहाँ धन की कमी नहीं थी, जीसा कि इच्छा थी कि मैं जमींदारी के गोरख धंधे में ना पड़ कर किसी व्यवसाय में अपना मुक्कद्दर और काबलियत आजमाऊं. तय हुआ कि मैं सान्याल अंकल के साथ ही फ्रांस चला जाऊँ, वहां वे मेरे दाखिले का इन्तेजाम INSEAD में करवा देंगे. मैंने ना नुकुर की मगर ठाकर सवाई सिंहजी के रौब और प्रोफ़ेसर प्रदीप सान्याल के अकाट्य तर्कों के सामने मेरी एक ना चली. दिल में बस एक तमन्ना थी कि जाने से पहले शुभा से मुलाक़ात हो सके, मगर ऐसा ना हो सका. अगला सेसन बस अगले महीने से ही शुरू होनेवाला था, एड्मिसन बंद हो चुके थे, सान्याल अंकल के रसूख से मुझे इस वर्ल्ड क्लास इंस्टी में अपने को परिमार्जित करने का अवसर मिल रहा था. यह भी आश्वासन दिया गया था कि तीन महीने बाद मैं एक दफा भारत आ सकूँगा. इस प्रकार मैं फ्रांस में लैंड कर गया था बस उसी सप्ताह. इंस्टी में पढाई का इतना प्रेशर था, एक से एक महत्वपूर्ण लेक्चर, प्रेसेंताशन्स, केस स्टडीज और वर्कशॉप में हिस्सा लेना उस समय कि प्रिओरिटी थी. मैं बस २१ महीने बाद कोर्स कन्क्लूड कर भारत लौट सका. इस बीच शुभा कि कोई खबर मुझे नहीं मिल सकी सिवा इसके कि डॉ. पाण्डेय एम्स दिल्ली को ज्वाइन कर लिया था, पाण्डेय परिवार दिल्ली चला गया था. जब वापस लौटा तो सुना कि डॉ. पाण्डेय को दिल को दौरा पड़ा था और वे एम्स से रुखसत पा कर अपने बेटे के पास अल्मोडा में शिफ्ट हो गए थे. उनका अता पता मुझे किसी भी तरहा से नहीं मिल सका. जीसा ने कई कुहावों की बात बताई, कई राज कांवरियों के स्नेप्स भी दिखाए, मगर सब कोई मेरी शुभा के सामने फीके थे.
मेरे संस्कार अपने पिता से कुछ भी नहीं कहने दे रहे थे. मैंने मन ही मन बहुत कुछ सोच लिया था. मैं वापस फ्रांस आ गया था. वहां सान्याल अंकल ने मुझे अपने किसी भूतपूर्व स्टुडेंट के ग्रुप में जॉब दिला दिया था. मार्गरेट आंटी मेरी राजदार थी. उन्होंने समझाया कि ज़िन्दगी में बहुत कुछ बदलाव आते हैं, हमें वक़्त के साथ चलना होता है.....शुभा ने शायद तुम से रिश्ता नहीं रखना चाहा हो, तभी तो उसने तुम्हारी कोई खोज खबर नहीं ली. शुभा और तुम डिफरेंट स्पेसी थे, दोनों की सोच और स्वभाव अलग, शायद निभाव नहीं होता. शादी के मामले में मार्गरेट चची का सात शादियों का अनुभव था सान्याल अंकल और खुद कि शादियों को मिलाते हुए. रेलाशन्शिप्स के भोगे हुए यथार्थों ने मार्गरेट चाची को मानवीय सम्बन्ध विशेषज्ञ बना डाला था. उनकी संगत का असर था कि मैं उनकी सहयोगी फैशन डिजाइनर रोजमेरी से प्रेम सम्बन्ध, फिर विवाह और उसके बाद विवाह विच्छेद कर बैठा था. हमारा एकलोता पुत्र जगत सिंह समझौते के तहत मेरे साथ रह गया था, जिसे मैंने अपने एक अभिन्न मित्र के पास कोलकाता में पढने के लिए रख छोडा था. मेरा संपर्क जीसा से लगभग टूट चुका था, दादीसा के देहांत के समय भी मैं भारत नहीं आया था, 'ठिकाने' 'गढ़' और जमींदारी से मैंने खुद को अलग कर लिया था. माँ मेरी बचपन में ही बिछड़ गयी थी, जीसा के राजसी स्वभाव ने उनकी ज़िन्दगी में ऐसी कई स्त्रियाँ भर दी थी जिन्हें मैं मां नहीं कह सकता था. मेरी कनपटियों के बाल सफ़ेद हो चुके थे. मेरे काले फ्रेम के टोमी हिल्फिगेर के ऐनक में शीशों में बहुत पॉवर आ गया था, दूर से देखने का भी और नज़दीक से देखने का भी. जगत सिंह छुट्टियों में मेरे पास फ्रांस आ जाता था. उसने भी प्रेसिडेंसी कॉलेज से फिलोसोफी में एमए कर लिया था और आगे की पढाई ह्यूमन रेसौर्सस मैनेजमेंट की करने के लिए TISS मुम्बई में दाखिला ले लिया था.
मेरी ज़िन्दगी के पचपन साल कितने उतार चढाव के साथ बीत गए थे. शुभा के ख़त यदा कदा पढ़कर पुरानी यादों को ताज़ा कर लेता था, मगर दिल को बींध देती थी ये यादें. मेरी व्हिस्की का इंटेक बढा देती थी ये यादें. मैं शुभा को भूलना चाहता था मगर भूल नहीं पा रहा था. उसकी मोहिनी सूरत, शालीन स्वभाव, विचारों की ऊँचाई, कोमल स्पर्श........(क्रमशः)
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