एक दफा तो दिल में आया कि उसे सब बता दूँ....शुभा से मेरा क्या रिश्ता रहा था....कैसे हम लोग जुदा हुए इत्यादि. किन्तु एक तरफ मुझे यह जानकर बहुत दुःख हो रहा था कि शुभा असमय इस दुनिया से चली गयी, किन्तु कहीं अवचेतन में एक अजीब सा सुकून भी था. मुझे बुरा और अच्छा साथ साथ लग रहा था....किसी अपने के चले जाने का दुःख किसी ना किसी प्रकार व्यक्त हो जाता है., किन्तु उसके बिछुड़ने से मिली राहत के कुछ और भाव विभाव भी अंतर में घटित होते हैं जिन्हें हम ताजिंदगी नहीं कह पाते, खुद से भी नहीं.
मैं यहाँ आपसे बिना माशा रत्ती का फर्क किये सब कुछ कह रहा हूँ. आपको भी जिज्ञासा होगी कि शुभा जिसे मैं अपनी जान से भी ज्यादा चाहता था, उसकी दर्दनाक मौत ने मुझे सुकून कैसा दिया ? आप सोच सकते हैं, मैं उसे कैसे फेस करता..... मैं उसके लिए कुछ नहीं कर सका था, मैं हमारे प्रेम के लिए कुछ नहीं कर सका था, भाग गया था मैं, कभी भी उसके अंतस को नहीं जान पाया था मैं, उसकी महानता के सामने मेरी क्षुद्रता उसी तरह थी जैसे एक महल के सामने एक झोंपडा, उसके सत्व (essence) को कभी नहीं पहचान पाया था, सपने लिए थे ज़रूर मैंने उसके साथ जीने के लेकिन उसकी जीवंतता के सम्मुख मेरी मुर्दानगी सिर्फ मर्दानगी के नाम पर कायम रह सकती थी.....मेरा प्रेम एक मर्द कि आधिकारिकता का प्रेम था, किसी ना किसी बहाने उस पर अपना स्वामित्व कायम करने का प्रेम था, अरे कालांतर में तो मैं उस कल कल करती सरिता को बांध देता परम्पराओं का एक बाँध बना कर...आज वह होती तो मेरे इन गुनाहों की एक मूक गवाह जो होती, मुझे अपने ही कटघरे में खडा कर मुझे ही मुंसिफ बना मुझे ही मुजरिम करार करने वाली होती.....मेरा सुकून वैसा ही था जैसा की एक हत्यारे को महसूस होता है, सबूत की कमी के कारण या 'बेनेफिट ऑफ़ डाउट' देकर रिहा कर दिए जाने पर . बार बार उसके आमने सामने होने की कल्पना से उपजे भय से मैं मुक्त हो गया था. किन्तु कुछ क्षणों के बाद मेरे अंतर में उसी भय मिश्रित हीनता का पुनर्जन्म हो गया था.
मेरी सारी शक्ति जैसे निचुड़ सी गयी थी. अपराध बोध मानव को एक ही झटके में शक्तिहीन कर दता है.....चाहे यह बोध भ्रमजनित हो अथवा तथ्य और सत्य पर आधारित. मेरा अपराध बोध तो गहरायी तक पैठा हुआ कीचड़ था, जो समय समय पर मुझे बौना बना मुझे बदबू से भर देता था, जिसे मैं हर पल महसूस करता रहता था. जिन सब बातों का जिक्र मैंने आप से किया वे मुझमें विद्यमान थी, बस शिवांगी के संयोगवश सामने आ जाने पर उस पात्र का ढक्कन खुल गया था. मैंने एयर होस्टेस से एक जिन-टोनिक ले आने का कहा. शिबंगी ने भी अपने लिए एक जिन टोनिक मंगा लिया था. यह नहीं कि मैंने उस उम्र कि लड़कियों को मद्यपान करते नहीं देखा था, किन्तु शिवांगी का जिन मांगना मेरे लिए नागवार गुज़र रहा था. सुसुप्तावस्था में कहीं ना कहीं आधिकारिकता मौजूद थी. एयर होस्टेस ने दोनों को मुस्कराहट के साथ ड्रिंक सर्व कर दिया था. शिवांगी ने एक सिप ली और कहने लगी, "आप क्या लेडीज ड्रिंक लेते हैं ? जिन तो अमूमन औरतें पिया करती है."
बहुत पैना था शिवांगी का प्रश्न....तीर की तरहा चुभ गया था.....मैंने इग्नोर करते हुए कहा, " अरे मैंने अपना परिचय तक आपको नहीं दिया."
"इट्स ओलराईट....अब बता दीजिये." फिर शुभा जिंदा हो गयी था...वही पैनापन. "मैं कुंवर अजीत सिंह....राजस्थान से हूँ.....यहाँ फ्रांस में बसा हुआ हूँ....आम तौर पर मैं व्हिस्की या रम पीता हूँ, आज जिन इसलिए पी रहा हूँ कि खुद को कमज़ोर पा रहा हूँ.....महसूस किया है कि जिन-टोनिक कुछ एनेर्जी देता है."
"ओह तो आप बाहरी सोर्स से एनर्जी पाते हैं....." शिवांगी कह रही थी.
मैंने बात बदली, " मैंने भी दर्शन शास्त्र में मास्टर्स किया था.... बहुत पहले..."
शिवांगी चहकी, " क्वायट इंटरेस्टिंग, तब तो हम बहुत कुछ पर बात कर सकते हैं. आखिर हमारे सब्जेक्ट्स जो कोमन है."
मैंने धीरे से कहा, "क्यों नहीं."
शिवांगी ने शुरुआत कि, " आपके फेवरिट कौन कौन थे."
मैंने कहा, " वैसे तो दर्शन शास्त्र अपने में बहुत विस्तृत विषय है, किन्तु मैं बर्ट्रेंड रस्सेल से बहुत प्रभावित रहा हूँ. "
शिवांगी पूछ रही थी, " विवाह संस्था (marriage institution) को आप कैसे देखते हैं ?"
मेरे चेहरे को अपने चश्में के पीछे छुपी आँखों से वह घूर रही थी और उस लम्बे से गिलास से टोनिक शिप कर रही थी.
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