Thursday, February 12, 2009

पहचान...

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मैं हूँ
इस पार
तुम हो
उस पार,
बीच
बह रही
नदी एक
कल कल
सुरों के संग,
कुछ दिन हुए
उस पार थे
हम दोनों,
हाथ में हाथ लिए
छोड़ आये थे
सब कुछ,
संग जीने
और
मरने के लिए,
हुआ क्या था
अचानक
लौट गई थी
तुम,
और
मैं
आ पहुंचा था
इस पार,
लेकर
एक मात्र नाव को
जो थी
उपलब्ध
वहां बस
सदा के लिए...
जला चुका हूँ मैं
अब वह नैया,
अनजान है
हम दोनों
तैरने से,
और
मर चुकें है
मेरे एहसास भी
शायद,
मत पुकारो
मुझे---
लौट जाओ...

बाद जलाने के
नाव
देखा है मैंने
अनवरत,
बिम्ब अपना
बहती नदी के
जल में,
और
पाया है
परिपूर्ण स्वयं को
तुम बिन भी,
अलग हैं
अपनी राहें और चाहें,
तुम भी
तनिक झुक कर
झांको ना
नदिया में,
तुम भी पहचान लो
शायद
स्वयं को......


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