Tuesday, February 10, 2009

मरुस्थल तुम नहीं…

यह मरुस्थल ही है
तुम नहीं……………
क्यों बना ली है

पहचान अपनी
इस मरुस्थल की

तपिश सी,
यह सूखापन
यह बिखरी सी आशाएं
यह चीखते सन्नाटे
यह प्यासा मन
यह अकेलापन
सब कुछ तो इसीका है---
इसी धूल और आंधी भरी
मरुभूमि का,
तुम्हारा कत्तई नहीं

तुम तो

निखिलिस्तान हो
रेगिस्तान में
जहाँ आकर

कोई प्यासा
पथिक
पा सकता है

छाँव और शीतल जल
बुझाने प्यास
अपने मन की

सुनहरी आशाएं,

मधुर गीत
शीतल सोचें,

स्नेह के झरने
एकांत के एहसासों से उपजा सुकूं
साश्वत सत्यों से आलिंगन
जीवन की सार्थकता से परिचय
सभी तो है तुम्हारे अंतर में,
जिन्हें ना जाने क्यों ढांपना
चाहती हो मरुस्थल की
शुष्क धूल से.

सभी बंद आँखोंवाले
घिरे हुए हैं मरुस्थलों से,
मृग मरीचिका के सदर्श
प्रलोभन और भ्रम
आरुढ़ है
इन मरुस्थलों में;
खुले हैं चक्षु जिनके
प्राप्य है उन्हें आनन्द
शाद्वल का
मरुद्यान का
और वहीँ कुछ दुर्भागी
कर रहे हैं प्राणांत
मरुस्थल कि सोचों में,
मरीचिका के

झूठे एहसासों में,
और मिथ्या

मृगत्रिष्णा में

दर्पण ले आन खड़ा हूँ
सम्मुख तुम्हारे,
मत पूछो किसी से...
निर्णय तक पहुंचना है
तुम्हें

केवल

तुम्हें
शाद्वल हो या मरुस्थल ?

(शाद्वल,निख्लिस्तान,मरुद्यान = oasis)

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