बात दीवानी की...
सावन के महीने में एक नज़ारा देख कर उसमें समायी कवियत्री ने उसके सोचों को कुछ इस तरहा प्रकट किया था:
# # #
काले मेघ
घिरे,
आवाजें
गड़गड़ाहट की,
विभोर
हो उठा
मनुआ
मोर का,
और
लगा था
नाचने वो
होकर
मदमस्त
होकर
आनन्दित...
इतना नाचा
मयूर
इतना
नाचा कि
टपकने
लगा था
खून
आँखों से
उसके...
देखा था
मोरनी ने
अचानक,
आयी थी
वह
लपक कर
पी गयी थी
वो
खून की
गर्म
बूंदों को.....
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काले मेघ
घिरे,
आवाजें
गड़गड़ाहट की,
विभोर
हो उठा
मनुआ
मोर का,
और
लगा था
नाचने वो
होकर
मदमस्त
होकर
आनन्दित...
इतना नाचा
मयूर
इतना
नाचा कि
टपकने
लगा था
खून
आँखों से
उसके...
देखा था
मोरनी ने
अचानक,
आयी थी
वह
लपक कर
पी गयी थी
वो
खून की
गर्म
बूंदों को.....
बात मेरी :
मोर को इस तरहा अपनी बात कहते मैने सुना था उसके साथ:
# # #
काले मेघों ने
दिलाई थी
याद तुम्हारी,
साध तुम्हारी,
तभी तो
नाच सका था
मैं
होकर विभोर,
भूला कर स्वयं को
एक अनजाने
उन्माद में....
मेरी आँखों से
गिरा
लहू
लिए हुए था
चाहत
तुम्हारी वफ़ा
तुम्हारी मोहब्बत
तुम्हारे आंसुओं की....
दे तो दिया है
जिसको
तू ने
पी कर,
समा कर
खुद में,
मुझे नहीं
तो
अपना कर
मेरे
रक्त को..
मेरे खून के
स्वाद ने
दिया है
आह्लाद
तुझ को,
बुझाई है
प्यास
तुम्हारी,
सहलाया है
अहम् को तेरे,
और
हुई हो बेहद
खुश तुम...
यही तो है
पराकाष्ठा
प्रेम की
मेरे....
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काले मेघों ने
दिलाई थी
याद तुम्हारी,
साध तुम्हारी,
तभी तो
नाच सका था
मैं
होकर विभोर,
भूला कर स्वयं को
एक अनजाने
उन्माद में....
मेरी आँखों से
गिरा
लहू
लिए हुए था
चाहत
तुम्हारी वफ़ा
तुम्हारी मोहब्बत
तुम्हारे आंसुओं की....
दे तो दिया है
जिसको
तू ने
पी कर,
समा कर
खुद में,
मुझे नहीं
तो
अपना कर
मेरे
रक्त को..
मेरे खून के
स्वाद ने
दिया है
आह्लाद
तुझ को,
बुझाई है
प्यास
तुम्हारी,
सहलाया है
अहम् को तेरे,
और
हुई हो बेहद
खुश तुम...
यही तो है
पराकाष्ठा
प्रेम की
मेरे....
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