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कहा था उसने बहुत ही मायूस हो कर....:
" सभी कुछ है
अपरिचित सा,
हाँ, अपरिचित
मैं और तुम भी.....
नहीं पहचानी
ता-उम्र
सुगंध हमने
एक दूजे की....
हम है ना
अपरिचित से,
रहकर भी
नीचे
एक छत के.....
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"एज़ युसुअल " मेरे उद्गार एक फलसफाना अन्दाज़ में कुछ ऐसे थे :
आओ रहें
अपरिचित से,
लेकिन
परिचय की
नित नयी
आस लिए....
भ्रम
पूर्ण परिचय का
या
जीना
अति-परिचय का
ला देता है
एक ठंडापन सा.....
हो रहा है
घटित
कुछ ऐसा ही
शायद
मध्य
तुम्हारे और मेरे....
प्रिये !
मोड कर मुंह
कैद इस छत की से,
तोड़ कर
परिचय की
असंगत
परम्पराओं को,
छोड़ कर
परिभाषाओं में बंधे
श्वास निश्वास को,
चलो ना
चिंतन और
भावनाओं की
खुली वादियों में,
बहती हवाओं में,
बरसती रिमझिम में,
पाने एक नया
परिचय
स्वयं का भी
एक दूजे का भी.....
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