Thursday, February 12, 2009

केक्टस : नागफनी (दीवानी सीरीज)

उसके (उस ज़माने के)वार्डरोब में ना जाने कहाँ से पुरानी यादों की तरहा उसका लिखा एक सफा हासिल हुआ.उसकी इस नज़्म को पढ़ा, बार बार पढ़ा मगर समझ ना सका यह उसने किस पर लिखी है. खुद पर या मुझ पर या किसी और पर.....चलिए मैं 'quote' कर देता हूँ आप ही करिए फैसला .

_______________________________
# # #

"केक्टस !
तुम्हे आता है
कभी
ख़याल भी
नर्म होने का ?

रहकर
वीरान खंडहरों
और
जंगलों में
हो गए हो
तुम निष्ठुर....

देखा है
कभी
तुम ने
सहलाकर
मखमली
काया को ?

बांधा है
किसी को
तुम ने
बाहुपाश में अपने ?

बाँधोगे कैसे ?
होता है
कभी
असर
किसी
मौसम का
तुम पर ?

तुम तो बस
बींध कर
औरों को
जानते हो
खुद
हिफाज़त से....


______________________________
मेरी बात :
पहली बार मुझे महसूस हुआ उसका इतना गहरा दर्द, खुद को केक्ट्स कहना एक मामूली कन्फेसन नहीं है, मैने उसे कितना गलत समझा था. ज़माने कि दी हुई कुंठाओं ने उसे ऐसा बना दिया था. काश! मैं उसे वह दे पाता जिसके लिए वह तरस रही थी,तडफ रही थी.....मगर मैं अभिमानी उस वक़्त 'Ayan Rand' का Fountainhead' और 'Atlas Shrugged' पढने में मशगूल था. काश मैं पढ़ पाता Ayn Rand की शुरूआती किताब 'We the living' ....बस औढ़ी हुई फिलोसोफी का नतीजा था कि मैं उस से और वो मुझ से दूर होती चली गयी. फासले बढ़ते गए...और आज तू वहां, मैं यहाँ.

# # #
बरस रही है
आँखे,
रो रहा है
दिल,
खयालों में मेरे
आज भी
सो रहा है
प्यार
उसका ......

आज बस इतना ही....

No comments:

Post a Comment