हुज़ूर की गर हम पे नज़रें इनायत होती
बेवक्त आशियाँ में, यूँ ना क़यामत होती.
ना बदले जाते हम ना होती दास्ताँ-ए-बर्बादी
बदौलत आपके, इज्ज़त सब की सलामत होती.
पढ़ा करते थे हम अल्फाज़ रूहानी हर लम्हा
अशआर हमारों में भी शामिल ये शराफत होती.
रोकर भी हंस देते शाम-ओ-सुबहा हम भी
उनकी फ़ित्रत में थोड़ी स़ी भी उल्फत होती.
क्या दम था रकीब में छीने जो मोहब्बत मेरी
नहीं मोलसदाकत का,हम पे भी तो दौलत होती.
एहसास-ए-बेचारगी से बच जाते हम भी
तजबीज में उनके थोड़ी स़ी नज़ाकत होती.
No comments:
Post a Comment