Tuesday, January 12, 2010

शुभा : अंतिम किश्त II

मैं कांप गया था. शुभा ने मुझे बाँहों में भर लिया था.......जमीं-आसमां एक हो गए थे.....वृतुल पूरा हो गया था....युग युग के प्यासों को अमृत मिल गया था.
हम लोगों ने होटल की कॉफी शॉप में ब्रेक फास्ट लिया. शुभा ने मेरे लिए मेरा मनपसंद मसाला ओम्लेट बनवाया था, मैंने स्लायिसेस पर मख्खन और जेम लगाया था, शुभा ने मेरे लिए चाय बनायीं थी, मैंने उसके लिए प्याले में कोर्न्फ्लेक्स डाले थे और दूध उडेला था. मेरी आदत के मुताबिक खाते समय होटों के बाहर अनायास ही मैंने जेम लिपटा लिया था-जिसे शुभा ने हौले से नैपकिन से पोंछा था.....कमरे और ब्रेकफास्टटेबल पर हम ने एक ज़िन्दगी जी ली थी.

होटल से एअरपोर्ट, मुंबई-जयपुर फ्लाईट, जयपुर-सुजानगढ़ की इन्नोवा से यात्रा, सब कुछ मानो क्षण मात्र में पूरा हो गया था. प्रेम का साथ कितना सुखद होता है, मैंने बहुत अरसे बाद महसूस किया था. बातें बहुत हुई, किन्तु कहाँ तक कह पाउँगा.....
सुजानगढ़ पहुंचे तो मानो जीसा मेरा ही इन्तेज़ार कर रहे थे.........हम दोनों को साथ देख कर उनके चेहरे पर एक दिव्य ओज दिखाई दिया, हलके से कह रहे थे -"शुभा-अजय मैं जा रहा हूँ.....एक बोझा था दिल पर---मैं तुम दोनों का मुजरिम हूँ----क्या मुझे मुआफ कर सकोगे----तुम्हारी मुआफी मुझे शांति से संसार से चले जाने में मदद करेगी---करणी माताजी की कितनी कृपा है मुझ पापी पर कि अंतिम क्षणों में तुम दोनों मेरे पास हो--और मेरा पोता जगत मुझे कन्धा देने के लिए हाज़िर है." ठाकुर साहब बीमार ज़रूर थे लेकिन रुआब अब भी चेहरे पर कायम था...रुआब के साथ पश्चाताप-प्रायश्चित से भरी विनयशीलता ने भाव भंगिमा को ईश्वरीय बना दिया था. उन्होंने अपने दोनों हाथ जोड़ लिए थे. शुभा कह रही थी, "मुआफ आपने खुद को कर दिया है जीसा, बस इतना ही प्रयाप्त है....हम लोगों ने बहुत कुछ पाया है आप से....आज उसका आभार व्यक्त करने का समय है मुआफी की तो प्लीज़ बात ही ना कीजिये....अपने आर्शीवाद से हमें नवाजें." मैं मौन था, कुछ भी नहीं बोल पा रहा था.
जीसा कह रहे थे, "तुम दोनों मेरी तेहरवीं के बाद परिणय सूत्र में बंध जाना....जगत का ख़याल रखना."
शुभा कह रही थी, "जीसा हम ने आप से आर्शीवाद माँगा है कि बिना किसी सामाजिक बंधन के हम एक दूजे को प्रेम कर सकें....जगत की जिम्मेदारी मेरी है अजय की नहीं...अजय कैसा है वह आप अच्छे से जानते ही हैं."
जीसा कह रहे थे, "बेटा ! ज़िन्दगी ने मुझे सिखाया है प्रेम किसी बंधन और आचार संहिता का मोहताज़ नहीं होता....सिद्धांत और व्यवहार की बातें तुम दोनों मुझ से अधिक जानते हो--पढ़े लिखे जो हो...शुभा बेटी मुझे तुम्हारी हर क्षमता पर विश्वास है.....तुम लोगों के प्रेम मय जीवन के लिए मेरे सारे आशीर्वाद तुम लोगों के साथ है....डोकरी(करणी माता) तुम लोगों को सदा सुखी रखे. मेरी आँखों से आंसुओं की झड़ी लगी थी, शुभा और जगत की आँखें नम थी.....बाकी सब भी नम आँखों के साथ इस आनन्दमय विदाई के साक्षी थे.....कमरा एक दैविक उर्जा से भरा हुआ था.

शुभा रिवाजों से परे ( महिलाएं शामिल नहीं होती) जीसा के दाह संस्कार में शामिल हुई थी, उनके आदेशानुसार चिता कि पहली लकड़ी शुभा ने सजाई थी. शुभा पंद्रह दिन गढ़ के जनान खाने में घर की महिलाओं के साथ रही थी....

दाह संस्कार के बाद हम जयपुर जाने के लिए इन्नोवा में सवार होते समय ही मिले थे.
मैं शुभा के साथ दो सप्ताह उसके अपार्टमेन्ट में रहा था, शामें हमारी बाहर गुजरती थी....कभी समंदर किनारे, कभी किसी ला-उंज या रेस्तरां में, कभी कोई मल्टीप्लेक्स में मूवी देखने में, जगत भी हॉस्टल से चला आता था इन शामों में शरीक होने.

आज मैं पेरिस लौट रहा था. शुभा और जगत एअरपोर्ट पर मुझे विदा करने आये थे. शुभा और मैं आलिंगनबद्ध थे....जगत ने उसी स्थिति में दोनों के पांव छुए थे. मेरा यह कहना बेमानी था कि शुभा तुम जगत का ख़याल रखना. शुभा ने कहा था, "अपना ख़याल रखना, ध्यान कि जो पद्धतियाँ मैंने बताई उनका अभ्यास करना.....जो सीडियां मैंने दी है उनको सुनने में समय लगाना....बस यह पल ही सच्चाई है....."
मैंने कहा था, "छुट्टियों में तुम और जगत पेरिस चले आना."

जगत से गले मिल कर मैं, सिक्यूरिटी एरिया में प्रवेश कर रहा था....और मुड़ कर दोनों के प्यार भरे हाथों का हिलना देख रहा था. तमन्ना थी कि इस बार भी फ्लाईट में डूब जाऊँ खवाब में और शुभांगी चली आये. ................

2 comments:

  1. ek behatreen write.. zindagi ke sabhi pehluon ko clarity ke saath prastut karta hua dharawahik..no words to appriciate..kuchh bhi kehna sooraj ko diya dikhana hoga.. Badhayi

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  2. shukriya, muditaji. aap jaise padhnewale mere lekhan ko prerit karte hain.

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