Thursday, March 18, 2010

मेरी पुकार ......

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कर कर के
मनुहार
मैं कहता
बारम्बार
सुन ले
मेरी पुकार
शलभ तू
मेरे निकट ना आ........

मुझे प्रपंची
जग कहता है
तू मुझ पर आहें
क्यों भरता है
वृथा दीवाने
क्यों मरता है
यदि चाहता
प्रकाश तू
जा खद्योत से
तनिक मांग ला,
शलभ तू
मेरे निकट ना आ......

है जलन ही
प्राण मेरा
जल जायेगा
छोड़ फेरा
ढूंढ ले तू
अन्य डेरा
प्रेम की पीड़ा
है यदि तो
दूर रह कर
तू अरे गा
शलभ तू
मेरे निकट ना आ......

हुई सुबह
मैं बुझ जाऊँ
बस राख ही तो
बिखरा जाऊं
लौट कर फिर
मैं ना आऊं
शीश बभूत को
लगा बावरे
कर याद
मीत
कोई दीप सा था
शलभ तू
मेरे निकट ना आ.......

(खद्योत=जुगनू)

2 comments:

  1. दीप का शलभ के प्रति स्नेह और अनुराग दृष्टव्य है हर स्टॅन्ज़ा में शलभ को समझने का प्रयत्न करता दीप ..अंत में उसका मीत होने को नकार नहीं सका .. और जहाँ मित्रता हो वहाँ कोई अंकगणित नहीं होती ना.. ना प्रकाश पाने की चाह ना पीड़ा से व्याकुल हो कर समीप आने पर पीड़ादूर होने की अपेक्षा ..

    सुबह होने पर दीप ने बुझ जाने की आशंका भी जताई और फिर लौट के ना आने की संभावना भी.. परंतु यदि शलभ दीप के बुझने से पहले उससे मिल जाता है तो वो भबूत सिर्फ़ दीपक की नहीं रह जाती वो दोनो की योगित भस्म हो जाती है..

    आपकी ये रचना एक बार फिर मुझे पहाड़ और ज़मीन- अंधेरा और बाती के प्रश्न उत्तर की याद दिला रही है... ऐसा लग रहा है की शलभ की तरफ से एक रचना क्रियेट की जा सकती है :)

    सूप्तावस्था में पड़ा लेखन का कीड़ा कुलबुला रहा है.. :)

    आशा करती हूँ जल्द ही शब्द दे पाउंगी अपने इन विचारों को जो आपकी इस रचना से उभर कर आए हैं

    शुक्रिया इतनी प्यारी रचना का सृजन करने के लिए

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  2. Muditaji,
    aapke padarpan aur itne sundar comments ke liye shukriya.

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