एक पुरानी रचना को प्रस्तुत कर रहा हूँ. इसमें प्रयोग किये गए 'मैं' से तात्पर्य 'व्यक्ति मुझ' अर्थात 'विनेश' से नहीं है....किसी के अनुभव को अभिव्यक्त करने का एक प्रयास थी यह रचना.
_____________________
शब्द-अशब्द.....
$ $ $ $
उन्मत
लहरों पर
लेता
हिचकोले,
भंवर में
डूबने
लगा था
मैं,
भूलकर
अंतस का
अनहद नाद,
शब्द गीतों पे
झूमने
लगा था
मैं,
बांधा था
भावनाओं
एवं
सोचों को,
देकर
शब्दों का
आकार,
हृदय मेरा
ना जाने क्यों
उनको,
नहीं कर
पाया
स्वीकार......
घूम रहे थे
शब्द
परिधि पर
केंद्र बिंदु से
दूर,
अशब्द
असीम था,
निहित
केंद्र में,
चेतन से
भरपूर.....
घटित हुआ
चैतन्य
नि:शब्द का,
पहुँच गया
मैं पार,
मिला तत्काल
इस
यायावर को
शांत
शून्य
साकार....
पाया था
मैने
अस्तित्व का,
अति
वेगवान
प्रवाह,
अन्तरंग में
सम्पूर्ण
आच्छादित,
आनन्द
उल्लास
अथाह.....
कालावरण के
बहुत परे थे,
वे
मधुरिम
शाश्वत
स्वर,
गुंजायमान
अनुभूति
चेतन की,
धवल
उज्जवल
प्रखर......
शब्द मात्र
आवरण
चिंतन के,
कदापि
स्वयम का
सार नहीं,
साधन हैं
क्षमता
सीमित के,
शक्तिमान
अपार नहीं....
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment