Tuesday, March 9, 2010

अकथ......

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कह कह कर
थक गया
नहीं कहा गया
मुझ से
अकथ !
क्षण में
होता है प्रतीत
मानो गगन को
बांधे है
इन्द्र धनुष,
किन्तु
झपकते ही
पलक
हो जाता है
भंग
दृष्टि का भ्रम,
बसा है
अंतस में
एक अबोला सा
मर्म,
थामता नहीं जो
मेरी
अक्षत कुंवारी
वेदना का हाथ,
भीगे हैं जिसके
आंसुओं से
मेरे नयन,
गीले हैं
लहू लुहान
दर्दीले
गीतों से
मेरे कंठ-स्वर,
कृन्दन है
किन्तु
कायरता,
वेदना
बन कर
संवेदना
करेंगी
प्रवाहित
सरिताएं
शांति
और
उल्लास की
और होगा
अर्जन
आनन्द का .......

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