Friday, March 12, 2010

कर्ज़दार.....

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चारों ओर जिसके,
सात फेरे लिए थे
तुम ने,
चुना था
जिसे साक्षी
सात जन्म तक
वचन निभाने के लिए,
सोचा था किसने
वही अग्नि
बना देगी राख
तुम्हारी देह के
चन्दन को.............

जिस दिन हुआ था
गठबंधन
तुम्हारी सूती साड़ी का
किसी की
रेशमी चद्दर से ,
ठीक ही कहा था
किसी ने
यह तो
मखमल में
पैबंद है टाट का ....

कैसे हो सकती थी
हैसियत तुम्हारी
ऊँची हवेली के
गुदगुदे बिस्तर पर बिछी
एक चद्दर से
बढ़कर.....

तुम ना जाने
किन परम्पराओं के
पालन में
हर सुबह
थाली में सजाये
संवेदना का चन्दन,
निष्ठां के पुष्प
आरती आदर्शों की
करती रही....

आज भी
आँगन में रोपी
तुलसी
अपने इर्दगिर्द
तुम्हारी मन्नतों के
धागे लपेटे खड़ी है
गवाह
तुम्हारी प्रार्थनाओं की
जिनमें तुमने
अपने सिंदूर के
चिरायु होने की
याचना की थी......

मेरी सताई हुई
साथिन !
निष्ठाएं जब
जीर्ण चद्दर में
लिपटी हो
प्रतिदान में उन्हें
सिवा अपमान के
क्या मिलता है......

समाज की
अंधी रिवाजों को
तुम्हे अपनी
गरीबी का ऋण
चुकाना था,
दहेज़ में तुमने
अपनी जिंदगी की
राख
उन ज़ालिम
कदमों में
रख दी थी
जो समर्थ थे
तुम्हारी इज्ज़त की
बड़ी सी बोली
लगाने के लिए....

बड़ी कर्ज़दार थी
री तू,
चलो अच्छा हुआ
तू ने
उऋण होकर
दुनिया को
अलविदा कहा....

(एक पुरानी रचना)

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