Tuesday, March 9, 2010

कस्तूरी........(आशु रचना )

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मुस्क की
तलाश में
भटकता रहा था
हरिण,
सूंघते हुए
दूर तक
बिखरी फैली
घास को,
लिए एक
झूठा सा एहसास
उस दूर से आती सी
महक का
जो फूट रही थी
खुद उसकी
नाभि से.....

पस्त हो गया था
वह मासूम चरिंदा
इस दीवानगी की
दौड़म भाग में,
गिर पड़ा था
हो कर बेसुध
और
त्याग दिए थे
प्राण.....

काश !
जान पाता
वह निरीह,
उदगम
कस्तूरी की
मदमस्त
सुगंध का......

(बकौल शायर खलिश कादरी : इश्क को मुश्क ही तो कहते हैं, मेरा अहवाल पूछता क्या है ?....अहवाल=वृतांत/हाल)

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