Wednesday, March 24, 2010

मंथन कर.....

(इस रचना के भाव मेरे हैं और नहीं भी..... शब्द मेरे हैं और नहीं भी....अवचेतन में कुछ भाव... कुछ शब्द संगृहीत थे..सोचे-समझे-पढ़े-जाने,कल्पित-अकल्पित-अनुभूत-अनानुभूत ...और यह रचना घटित हो गयी ...कभी कभी तो लगता है रूपांतर ही तो है......शेयर कर रहा हूँ आप से..)

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प्रश्न तुम्ही ;
तुम्ही हो
उत्तर....

तट !
अतल के
साथ
चले.... जा,
फल
निष्फल का
चिंतन है
क्यूँ,
क्षण
नश्वर से
बंधे हुए है,
नन्हे नन्हे
क्षण
अविनश्वर,
प्रश्न तुम्ही
तुम ही हो
उत्तर....

घेरे क्यों है
तुझे
हताशा,
अधरों की
बस
सजा है
भाषा,
प्रतिमा का
निर्माण
यह कैसा,
काट
फूल से
कोई
पत्थर,
प्रश्न तुम्ही ;
तुम्ही हो
उत्तर....

नहीं मथा
दधि...
नवनीत
खोजता,
मूढ़ ही तो
इस भांति
सोचता,
बार बार
पुकारे
पयोधि,
मंथन कर
तू मंथन कर,
प्रश्न तुम्ही ;
तुम्ही हो
उत्तर....

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