Tuesday, March 30, 2010

शास्त्र शब्दास्त्र

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लड़े जा रहा था
मैं अकेला,
एक अदृश्य
युद्ध,
हाथों में
लिए हथियार
विगत के,
शब्द-व्यूह में
घिरा.....

उस पल तक
नहीं हुआ था
संहार
चेतन्य के
प्रबल शत्रु
मेरे
'अहम्' का....

पुस्तकों के
पृष्ठों पर
थे आरूढ़
काला मुंह किये
हारे हुए
मेरे
बहरूपिये विचार
शब्द
बनकर....

अट्टहास
कर रहा था
हरा कर
मुझ को,
मन की
सीमा पर
खड़ा
निर्लज्ज
द्वन्द........

हुआ था
आभास
'यहीं और अब' का
घटित हुई थी
सजगता,
छूट गए थे
शास्त्र,
रणछोड़
हुआ था
द्वन्द,
गिरा कर
अपने
शब्दास्त्र...

(एक मनीषी ने अपने अनुभव 'शेयर' किये थे मुझ से और मैने शब्द देकर आप तक पहुँचाने का प्रयास किया है.)

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