Friday, March 12, 2010

मिथ्या संन्यास.....

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मिल गए थे हमें
वृन्दावन में
एक स्वामी
वियोगानन्द
वैराग्य की
करते थे चर्चा
प्रभु स्तुति में
गाते थे छन्द.......

दर्शनोपरांत
उनसे मेरा
सहज एक निवेदन था
परिचय पाने उनका
उत्सुक मेरा
संवेदन था...

बोले थे
स्वामी शिरोमणि
कुछ ऐसे,
"जानते हो मैने
करोड़ों की सम्पदा का
किया है परित्याग,
घर-परिवार भरपूर छोड़
मैं हो गया बेलाग.
घी नमक मिर्च
मैं खाता नहीं
परस्त्री के सम्मुख मैं
कभी जाता नहीं,
सात्विक भोजन
मेरी पूर्वभार्या
पकाती है
पंखा झेल कर
वह सेवाभावी
मुझ को सदा
खिलाती है.
याचना मैं
किसी से
करता नहीं
बहुत कुछ है
आज भी मेरा
मैं किसी से भी
डरता नहीं.
विश्व के हर कोने में
करोड़ों के
मेरे मठ और आश्रम है
सन्यासी जीवन का
मेरा सार्थक
यह परिश्रम है.
शिष्य है मेरे
लाखों की तादाद में
मचा सकता हूँ
तहलका में
विरोधी बस्तियां
आबाद में.
हर अखबार में
मैं छपता हूँ
इतना व्यस्त हूँ किन्तु
नित्य एक घड़ी
नाम प्रभु का जपता हूँ."

पूछा था मैं ने ,
"घटित हुआ कब
मुनिवर !
आपका संन्यास ?"
बोले थे मुनिजी,
"हो गए भक्त
यही कोई
वर्ष पच्चास."

हुआ था आश्चर्य
मुझे यह सुनकर
कैसे बता रहे थे वे
परित्यक्त-विगत से जुडी
अवधि को गिनकर.........

रहता है जिन को
सांसारिक समृधि का
निरंतर ख़याल
बेमानी था उनको
मेरा वह
फलसफाना सवाल......

त्याग के भोग में
वैभव का मोह
छूटा नहीं,
आत्मानंद
प्रस्फुटित हो कैसे
पाषाण अहम् का
अब तक
टूटा नहीं....

यश लोलुपता
पद लोलुपता
उनके रौं रौं में
समायी थी
ज्ञान दर्शन चारित्र की
बातें उनकी
हवाई थी.....

बोझिल था
चिंतन उनका
सांसारिक उपलब्धियों
स्मृतियों से
कुंठित थे वे
अपनी इन सारी
प्रवृतियों से......

भ्रमित था
वह मानव
पथ का था नहीं
उसे आभास
जकड़ा था मान्यताओं से
नहीं देखा था
उसने प्रकाश....

स्वयम को था
जिसने जाना नहीं
संगत ऐसों की से
हमको था
कुछ पाना नहीं....

(मेरे स्कूल टाइम की एक रचना)

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