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टूट गया है
भ्रम आँखों का,
अब तो
लग रहा है
संसार एक
अनहोना सा
सपना,
निरर्थक है
जिसमें सोचना
संवेदना
भावना
सौहार्द और
विवेक की
बातें...
चलना होगा
हमें
नारे लगाती
भीड़ के
रेले के संग
जिसमें नहीं
समझता कोई
किसी को भी,
क्या ज़रुरत है
पहचान और
पहचानने की....?
(आदर्शों और दुनियावी व्यवहार की टकराहट का एक दौर था मेरे विद्यार्थी जीवन में.....किसी ऐसे ही पल में कलम चल गयी थी.....किन्तु यथासमय ऊबर आया था इस स्थिति से...ऐसे मनस्थितियां चौराहे पर रूक कर सही मार्ग पकड़ने के लिए होती है..जीवन दर्शन बनाने के लिए नहीं.)
टूट गया है
भ्रम आँखों का,
अब तो
लग रहा है
संसार एक
अनहोना सा
सपना,
निरर्थक है
जिसमें सोचना
संवेदना
भावना
सौहार्द और
विवेक की
बातें...
चलना होगा
हमें
नारे लगाती
भीड़ के
रेले के संग
जिसमें नहीं
समझता कोई
किसी को भी,
क्या ज़रुरत है
पहचान और
पहचानने की....?
(आदर्शों और दुनियावी व्यवहार की टकराहट का एक दौर था मेरे विद्यार्थी जीवन में.....किसी ऐसे ही पल में कलम चल गयी थी.....किन्तु यथासमय ऊबर आया था इस स्थिति से...ऐसे मनस्थितियां चौराहे पर रूक कर सही मार्ग पकड़ने के लिए होती है..जीवन दर्शन बनाने के लिए नहीं.)
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